भारत में आंवला की खेती लगभग हर राज्य में की जाती है. यह अपने औषधीय गुणों के कारण लोगों द्वारा काफी पसंद किया जाता है. आंवला में विटामिन C की भरपूर मात्रा पाई जाती है. यह आपके सेहत और त्वचा के लिए काफी फायदेमंद होता है. ऐसे में बाजारों में आंवले की मांग हमेशा बनी रहती है. आंवला की खेती मुख्यतः हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने में की जाती है. यह फसल शुष्क उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में अच्छी तरह फल फूल सकती है. सर्दियों के मौसम में आंवले के पेड़ पर कई बीमारियों का खतरा रहता है. ऐसे में आंवला के पौधों में रोग एवं कीट से बचाने की जरूरत है. इसके लिए क्या करना चाहिए आइये जानते हैं.
आंवला में जंग रोग काफी आम है. यह रोग उत्तर प्रदेश के इलाकों में ज्यादातर पाया जाता है. उस इलाकों के पौधों में इस रोग का खतरा सबसे अधिक देखा जाता है. यह रोग रैवेनेलिया एम्ब्लिका के कारण होता है. इस रोग के कारण पौधे फलों और पत्तियों पर काले या गुलाबी-भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इससे बचाव के लिए जुलाई-सितंबर में डाइथेन-जेड-78 के वेटेबल सल्फर का छिड़काव कर जंग रोग का उपचार किया जा सकता है.
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तना छेदक रोग: छाल खाने वाले कैटरपिलर की वजह से पेड़ों में इस रोग का खतरा रहता है. इस कीट के प्रकोप से नई टहनियां सूखकर मर जाती हैं. कीट प्रबंधन के लिए नियमित रूप से नई टहनियों को सुरक्षित रखने के लिए पौधों का निरीक्षण करना चाहिए, बाग को साफ रखना चाहिए, संक्रमण के प्रारंभिक चरण में ही कैटरपिलर को मार कर जाले को हटा देना चाहिए. कीट प्रबंधन के लिए 0.025% डाइक्लोरवोस में भिगोए गए रूई का उपयोग करना या क्लोरपाइरीफॉस (0.5%) के पानी के घोल को इंजेक्ट करना आवश्यक है.
ब्लू मोल्ड: आंवले के पौधे पर ब्लू मोल्ड का खतरा बना रहता है. यह एक ऐसी बीमारी है जो फलों की सतह पर भूरे धब्बे और पानी से भरे क्षेत्रों का कारण बनती है. जैसे-जैसे संक्रमण बढ़ता है, फल से दुर्गंध आने लगती है और फल में नीले-हरे रंग के दाने निकलने लगते हैं. इस रोग का प्रबंधन करने के लिए, फलों को चोट से बचाने की जरूरत है. इसका इलाज बोरेक्स, सोडियम क्लोराइड, मेंथा ऑयल और कार्बेन्डाजिम से भी किया जा सकता है.
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