राजस्थान के किसान अब सरसों की खेती से अपना मुंह मोड़ रहे हैं. उनका रुख अब सरसों की जगह मसाला फसलों की तरफ तेजी से बढ़ रहा है. ऐसे में सरसों की जगह अब सौंफ ने ले ली है. इसकी वजह ये है कि इस फसल पर पाले यानी सर्दी का प्रकोप कम होता है. जबकि सरसों जिस समय पकती है उस समय सर्दी बहुत ज्यादा पड़ती है, जिसके कारण सरसों की खेती अच्छी नहीं होती है और उत्पादन पर असर पड़ता है. दरअसल, सरसों की फसल को जनवरी में लगभग पक जाती हैं और फरवरी में कटाई शुरू हो जाती है, जिसके कारण दिसंबर और जनवरी में अधिक सर्दी होने के कारण फसल अच्छी नहीं पकती है, जबकि सौंफ के पकने में अधिक समय लगता हैं और सौंफ के भाव अधिक मिलने के चलते अब किसानों ने अपना रुख बदल लिया है.
डॉ शंकर लाल सियाक ने किसान तक के रिपोर्टर से खास बातचीत में बताया कि राजस्थान के किसान सौंफ के अलावा ईसबगोल, पान मेथी (कसूरी मेथी) की भी खेती अधिक मात्रा में कर रहे हैं. साथ ही किसानों का मानना है कि सरसों की खेती में ओरोबैंकी खरपतवार ज्यादा होने के चलते पैदावार कम होने लगी है, जिसके कारण सरसों के पौधे छोटे रह जाते हैं, ये खरपतवार सरसों की आड में बड़ा हो जाता है. वहीं ओरोबैंकी खरपतवार 10 वर्षों से अधिक समय तक जीवित रह सकता हैं. जिसके कारण सरसों की फसल किसानों को 10 से लेकर 70 प्रतिशत नुकसान पहुंचाते हैं, जिसके कारण किसानों ने सरसों की खेती करने से अपना मुंह मोड़ लिया है और जीरा, ईसबगोल, सौंफ, पान मेथी (कसूरी मेथी) की खेती करने लगे हैं.
ओरोबैंकी खरपतवार एक परजीवी खरपतवार होती है. ये खरपतवार सरसों के साथ अन्य कई फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं जैसे बैंगन, टमाटर, तंबाकू, फूलगोभी, पत्ता गोभी, शलजम, सोलेनेसी, क्रूसीफेरी में बहुतायत देखने को मिलता है. ओरोबैंकी खरपतवार दो तरह की परजीवी होते हैं. पहला तो ओरोबैंकी इजिस्टिका दूसरा ओरोबैंकी सेरेनुआ है. ओरोबैंकी सेरेनुआ के प्रकोप से किसानों को 70 प्रतिशत नुकसान उठाना पड़ता है.
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ओरोबैंकी खरपतवार से ग्रसित सरसों के पौधे छोटा रह जाते हैं. कभी-कभी तो यह पौधे मर भी जाते हैं. ओरोबैंकी खरपतवार सरसों की जड़ों में घुसकर अपना पोषण लेना शुरू कर देते हैं. वहीं, जब किसान इसे फसल को उखाड़ कर देखते हैं तब पता चलता है कि ओरोबैंकी खरपतवार सरसों की जड़ों के अंदर पूरी तरीके से घुसी हुई दिखती है और मिट्टी के नीचे से निकलते हुए ओरोबैंकी दिखाई देती है.
ओरोबैंकी खरपतवार का तना गद्देदार होता हैं. इसकी लंबाई 15 से 50 सेंटीमीटर तक होती है. इसके तने का रंग हल्का पीला, बैंगनी और लाल रंग का दिखता है. यह पतली भूरी पत्तियों से ढकी रहती है. यह खरपतवार अंडाकार बीजयुक्त फलिया बनता है जो लगभग 5 सेंटीमीटर लंबी होती है, जिसमें सैकड़ों की संख्या में छोटे-छोटे काले बीज होते हैं और यह बीज भूमि में कई वर्षों तक जीवित रह जाते हैं.
ओरोबैंकी के बीज भूमि में 10 वर्षों से अधिक समय तक जीवित रहता है और इसका अंकुरण तभी होता है जब सरसों की फसल पूरी तरह उग जाती है, तब उसकी जड़ों के पास यह उगना शुरू होती है और यह जड़ों से घनिष्ठ संबंध बनाकर उससे जुड़ जाती है. सरसों की जड़ों के सहारे यह बढ़ना शुरू कर देता है और यह एक महीने तक जमीन के अंदर सरसों की जड़ों में ही बढ़ता रहता है. यह सरसों की जड़ों से अपना पोषण लेता रहता है.
इस खरपतवार को रोकने के लिए नए खेतों में नया और ताजा शुद्ध बीज का उपयोग करना चाहिए. वहीं, ओरोबैंकी खरपतवार को समय पर ध्यान देकर उसे उखाड़ कर फेंक देना चाहिए. इसके अलावा जिस लगता है कि इस खरपतवार का अधिक प्रकोप है वहां पर सरसों की फसल कम मात्रा में बोनी चाहिए. इसके अलावा सरसों की खेती करने से पहले खेतों की गहरी जुताई करें ताकि उसके तने नष्ट हो जाएं. साथ ही जिस खेत में इस खरपतवार का प्रकोप हो वहां, अरंडी का पौधा लगाना चाहिए. अरंडी इस परजीवी को रोकने में पूरी तरीके से किसानों की मदद करती है. वहीं, ओरोबैंकी पौधों पर यदि सोयाबीन के तेल की दो बूंद डाली जाए वह मर जाता है.
डॉ शंकर लाल सियाक ने किसान तक के रिपोर्टर से खास बातचीत में बताया कि सबसे ज्यादा ओरोबैंकी नामक खरपतवार बढ़ने के कारण किसानों को सरसों की पैदावार कम होती है. दूसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि तापमान में बिगड़ने के कारण सरसों जो कि 50 से 60 दिन में पकती है. उसमें देरी के कारण भी किसान इसकी खेती नहीं करना चाह रहे हैं. इसके अलावा सरसों की तुलना में सौंफ के बाजार भाव अधिक रहते हैं. साथ ही की सौंफ खेती 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है, जबकि सरसों 4 -3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रहती है.
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