क्लाइमेट चेंज: बुंदेलखंड में बदलेगा क्राॅॅप पैटर्न, झांसी में केला तो बांदा में खजूर की एंट्री

क्लाइमेट चेंज: बुंदेलखंड में बदलेगा क्राॅॅप पैटर्न, झांसी में केला तो बांदा में खजूर की एंट्री

गुजरात के कच्छ इलाके को खजूर का कटोरा कहा जाता है. रेतीली जमीन और तेज धूप वाले दक्षिण भारत के कुछ इलाके पिंड खजूर की खेती के लिए जाने जाते हैं. इसी तरह अधिक वर्षा वाले आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे दक्षि‍ण एवं पूर्वोत्तर के इलाके केले की खेती के लिए मशहूर हैं. मगर, 'क्लाईमेट चेंज के चेलेंज' ने तमाम फसलों को एक इलाके से दूसरे इलाकों में श‍िफ्ट करने पर मजबूर कर दिया है.

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क्लाइमेट चेंज: बुंदेलखंड में बदलेगा क्राॅॅप पैटर्न,  झांसी में केला तो बांदा में खजूर की एंट्री जलवायु परिवर्तन की चुनौती को भांप कर झांसी के किसान ने अपनाई केले की खेती

यह जानकर चौंकना लाजमी है कि पिंड खजूर और केला, भविष्य में बुंदेलखंड की पहचान बन जाएंगे. जी हां, उत्तर प्रदेश का वही बुंदेलखंड जो सूखा और किसानों की बदहाली के लिए अब तक बदनाम था, उसी बुंदेलखंड ने जलवायु परिवर्तन की चुनौती को 'आपदा में अवसर' की तरह स्वीकार कर लिया है. इसके तहत बुंदेलखंड में मौसम के बदलते मिजाज को देखते हुए झांसी में केला और बांदा में पिंड खजूर की खेती का पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया है. इस इलाके में कैसे हो रही है फसलों की श‍िफ्टिंग, जानते हैं जानकारों की जुबानी. 

बुंदेलखंड में झांसी और चिंत्रकूट मंडल के उप निदेशक (उद्यान) विनय यादव ने 'किसान तक' को बताया कि जलवायु परिवर्तन की सच्चाई से अब किसान मुंह नहीं मोड़ सकते हैं. इसलिए किसानों को अब बदलते मौसम के अनुकूल अपनी फसलों का चयन करना होगा. इस काम में तकनीकी मदद के लिए क्रॉप शि‍फ्टिंग एक बेहतर विकल्प है.

मौसम संबंधी आंकड़ों के हवाले से उन्होंने बताया कि बुंंदेलखंड में पिछले 4 सालों में बारिश की मात्रा बढ़ी है. साथ ही औसत तापमान में वृद्ध‍ि और अनियमित बारिश एवं सर्द दिनों में कटौती की चुनौती को देखते हुए इस इलाके के किसान गेहूं, धान और मटर जैसी पारंपरिक फसलों के भरोसे नहीं बैठ सकते हैं. 

उन्होंने कहा कि पिछले मानसून में नवंबर-दिसंबर तक बारिश होने के कारण जालौन जिले में किसान मटर की बुवाई नहीं कर पाए. किसानों को लगभग हर साल, इसी तरह की मौसम संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. इससे निपटने के लिए 'क्रॉप शि‍फ्टिंग' को इस इलाके में बढ़ावा दिया जा रहा है.

झांसी में शुरू हुई केले की खेती

व‍िनय यादव ने बताया कि झांसी जिले के बामौर ब्लॉक में बिल्हाटी गांव के किसान सुशील कुमार ने उद्यान विभाग की देखरेख में अपनी 2 हेक्टेयर जमीन पर केले की खेती शुरू की है. यादव ने बताया कि यह एक पायलट प्रोजेक्ट है. इसके तहत केले के 6 हजार पौधे लगाए जा चुके हैं. प्रोजेक्ट से जुड़ी टीम इनकी लगातार निगरानी कर रही है. पौधों की अब तक की ग्रोथ संतोषजनक है.

उम्मीद है 14 महीने में इस खेत से उपजी केले की उपज को, झांसी का बाजार मु‍हैया कराने की तैयारी चल रही है. उन्होंने बताया कि अभी बुंदेलखंड में महाराष्ट्र से केले की आपूर्ति होती है. झांसी के बाजार में 14 महीने बाद पहली बार स्थानीय केले की सप्लाई होगी. 

बांदा में होगा अब पिंड खजूर

यादव ने बताया कि मिट्टी एवं अन्य जलवायु संबंधी हालात को अनुकूल पाते हुए बांदा में पिंड खजूर की परियोजना शुरू करने की पहल की है. इसका प्रोजेक्ट शासन की मंजूरी के लिए भेज दिया गया है. जल्द ही इस परियोजना के तहत झांसी में केले की खेती की तर्ज पर बांदा में पिंड खजूर का प्रोजेक्ट शुरू कर दी जाएगी. साथ ही बांदा में पिंड खजूर का सेंटर ऑफ एक्सीलेंस भी बनाने का प्रस्ताव शासन को भेजा जा चुका है.       

कुछ यूं बदल रहा मौसम

फसल चक्र के शोध से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘इक्रीसेट’ के प्रमुख वैज्ञानिक डाॅ. रमेश कुमार की अगुवाई में पिछले कुछ सालों से बुंदेलखंड में जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर कृषि पद्धति में बदलाव पर अध्ययन जारी है. डॉ. कुमार ने 'किसान तक' से अध्ययन के अनुभव साझा करते हुए बताया कि मौसम में बदलाव को देखते हुए मौसम के अनुकूल फसलों का चयन करने का समय आ गया है.

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उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड में बारिश के पिछले 70 सालों के आंकड़ों का अध्ययन किया गया. इसमें समूचे बुंदेलखंड में 2 साल सूखा, फिर 1 साल सामान्य बारिश और फिर अगले साल बारिश की अधिकता देखने को मिल रही है. उन्होंने बारिश के पैटर्न में भी बदलाव आने का जिक्र करते हुए क‍हा कि बुंदेलखंड में कुछ दशक पहले तक पूरे वर्षा काल के दौरान एक सप्ताह तक बारिश न होने की घटनायें (ड्राई स्पैल) 2 से 3 बार होती थीं. पिछले एक दशक में यह संख्या बढ़कर 5 से 6 हो गई है. इतना ही नहीं पिछले 3 सालों में बारिश के दौरान 15 दिन का ‘ड्राई स्पैल’ भी 1 से 2 बार देखने को मिला. इसी तरह गर्मी और सर्दी के मौसम भी अपना रुख बदल रहे हैं. इस साल फरवरी में मध्य मार्च वाली गर्मी होना इसका ताजा उदाहरण है.

किसान क्या करें

डाॅ. कुमार का सुझाव है कि इन परिस्थितियों में बुंदेलखंड के किसानों को अपनी खेती का भविष्य सुरक्षित बनाने के लिये वर्षा जल संग्रह के हर संभव उपाय अपनाने होंगे. इनमें छोटे बड़े तालाब बनाना और खेतों की मेड़बंदी करने जैसे पारंपरिक तरीकों को फिर से जिंदा करना जरूरी है. उन्होंने कहा कि किसानों के लिए 60 से 90 दिन वाली फसलों के बीज इस्तेमाल करना, बागवानी, खासकर खट्टे फलों की खेती पर जोर देना और पशुपालन आधारित कृष‍ि पद्धति को अपनाना, अब समय की मांग है. 

अध्ययन का तरीका

डॉ. कुमार ने बताया कि बुंदेलखंड इलाके में बारिश के आंकड़ों को दर्ज करने के लिये मौसम विभाग के 23 स्टेशन कार्यरत हैं. इनसे जुटाए गए आंकड़ों के हवाले से उन्होंने बताया कि 70 साल पहले बुंदेलखंड में सालाना 1000 मिमी औसत बारिश होती थी. इसमें प्रति वर्ष 200 से 250 मिमी की कमी दर्ज की गई है. अब औसत बारिश का स्तर खतरनाक रूप से गिरकर 750 मिमी तक रह गया है. 

अध्ध्यन में यह भी पता चला है कि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की तुलना में उत्तर प्रदेश के इलाके में जमीन की अंदरूनी परत पूरी तरह से सूख चुकी है. ऐसे में कहीं बारिश और कहीं सूखा की स्थिति ने किसानों के संकट को गहरा दिया है. इस संकट का एकमात्र उपाय वर्षा जल संग्रहण पर आधारित कृषि को अपनाना है. 

सिक्किम की तर्ज पर बुंदेलखंड हो जैविक क्षेत्र घोष‍ित

झांसी के जिला कृषि अध‍िकारी केके सिंह ने कहा कि इस इलाके के किसानों को मौसम में बदलाव के अनुरूप फसल चक्र को निर्धारित करते हुए जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. उन्होंने इस अध्ययन रिपोर्ट से इत्तेफाक जताते हुए कहा कि रासायनिक खादों के इस्तेमाल एवं अन्य कारणों से जिस प्रकार जमीन की अंदरूनी परत सूख चुकी है, उसे देखते हुए वर्षा जल संग्रह और जैविक खेती ही किसानों को सुरक्ष‍ित भविष्य दे सकते हैं.

सिंह ने कहा कि बुंदेलखंड में यद्यपि रासायनिक खाद और कीटनाशकों का तुलनात्मक रूप से कम इस्तेमाल होता है. इसके बावजूद जमीन की अंदरूनी परत का सूखना, चिंताजनक बात है. ऐसे में उन्होंने सुझाव दिया कि स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए सिक्किम की तर्ज पर अगर पूरे बुंदेलखंड को जैविक क्षेत्र घोषित कर दिया जाए तो इससे न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां कम होंगी, बल्कि किसानों की आय भी बढ़ाने में मदद मिलेगी. यह जनस्वास्थ्य के लिहाज से भी बेहतर विकल्प होगा.

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