भारत में 18वीं लोकसभा के लिए मतदान का आगाज शुक्रवार से हो गया. इस बार के चुनावों को कई राजनीतिक विश्लेषक एतिहासिक करार दे रहे हैं. उनकी मानें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरा कार्यकाल जीतकर पंडित जवाहर लाल नेहरु के रिकॉर्ड की बराबरी करने में सक्षम हैं. हालांकि पीएम मोदी के सामने अगले कार्यकाल से पहले और उसके बाद कई चुनौतियां हैं. ठीक उसी तरह से जिस तरह से नेहरु ने कई चुनौतियों के बाद भी एक और जीत हासिल की थी. सन् 1962 तक भारत के चुनाव आयोग ने कई प्रक्रियाओं को ठीक कर लिया था. उस साल रिकॉर्ड मतदान हुआ था और कांग्रेस को बड़ी जीत मिली थी. लेकिन चुनाव से पहले ही पार्टी की राजनीतिक आलोचना स्पष्ट नजर आने लगी थी.
इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि साल 1962 के आम चुनाव तब हुए थे जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने दूसरे कार्यकाल में एक मिलिट्री ऑपरेशन में गोवा, दमन और दीव को आजाद कराया था. ये वो क्षेत्र थे जो 400 से ज्यादा समय तक पुर्तगाल के कब्जे में रहे थे. लेकिन इसके बाद भी उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था. पहले मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) सुकुमार सेन सन् 1958 में रिटायर हो गए थे. उनके बाद केवीके सुंदरम ने जिम्मा संभाला था. सन् 1962 के चुनाव में बड़ा बदलाव दो सदस्यीय सीटों को खत्म करना था. यह वह तरीका था जिसका मकसद कुछ आरक्षित (एससी/एसटी) सीटों पर सामान्य वर्ग को प्रतिनिधित्व मुहैया करना था.
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पहले दो चुनावों में, कुछ संसदीय क्षेत्रों - जिनमें नेहरू का फूलपुर और फिरोज गांधी का रायबरेली शामिल था, ने दो सदस्यों को लोकसभा में भेजा था. आपको बता दें कि पहली लोकसभा में पश्चिम बंगाल में भी तीन सदस्यीय सीट थी. सन् 1957 में, कांग्रेस के दिग्गज नेता और भारत के भावी राष्ट्रपति वी वी गिरि आंध्र प्रदेश के पार्वतीपुरम में दो सदस्यीय सीटों में से एक के बाद तीसरे स्थान पर रहे. उनसे पहले अनुसूचित जनजाति (एसटी) उम्मीदवार थे. उस समय पूरे देश में, नौ सिंगल मेंबर जनरल सीटों पर एससी/एसटी उम्मीदवार चुने गए.
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गिरि ने दूसरे एसटी उम्मीदवार डिप्पाला सूरी डोरा के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन कोई राहत नहीं मिली. जैसे ही एससी/एसटी आरक्षण को एकल सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों तक सीमित करने की मांग ने जोर पकड़ा, संसद ने टू मेंबर कॉन्स्टीट्यूएंसीज (एबॉलिशन) एक्ट सन् 1961 में पास कर दिया था. सन् 1962 के चुनाव में दूसरा बदलाव 1960 में गुजरात और महाराष्ट्र के नए राज्यों और 1961 में गोवा, दमन और दीव और दादरा और नगर हवेली के केंद्र शासित प्रदेशों के निर्माण और साथ में प्रशासनिक सीमाओं के पुनर्गठन के तौर पर सामने आया.
भारत की तीसरी लोकसभा के लिए मतदान करने के लिए लगभग 21 करोड़ भारतीयों को 16-25 फरवरी तक केवल दस दिन लगे. कुल 1,985 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, जिसमें 21.63 करोड़ मतदाताओं में से 55.43 फीसदी ने मतदान किया. यह आंकड़ा सन् 1957 के चुनाव में 47.54 फीसदी मतदान से काफी ऊपर था. सन् 1962 में सबसे अच्छा मतदान नागपट्टिनम में हुआ था और यहां पर मतदान प्रतिशत 90 फीसदी के करीब था. जबकि 12.04 फीसदी के साथ भंजनगर, ओडिशा में सबसे खराब वोटिंग हुई थी. ये ऐसे आम चुनाव थे जिनमें लोग नदियां और रेगिस्तान पार कर वोट डालने पहुंचे थे.
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नेहरू के दूसरे कार्यकाल के मध्य तक कांग्रेस की आलोचनाएं साफ तौर पर सुनी जा सकती थीं. सन् 1959 में नागपुर में कांग्रेस के सत्र में चौधरी चरण सिंह, जो उस समय भी कांग्रेस में थे, ने पार्टी के सहकारी खेती संकल्प की आलोचना की. इसमें खेती के मशीनीकरण के नियमों के बिना व्यक्तिगत भूमि जोत की पूलिंग का प्रस्ताव था. 10 अप्रैल, 1962 को, नेहरु ने 73 साल की उम्र में प्रधानमंत्री के तौर पर तीसरे कार्यकाल के लिए शपथ ली. चुनाव अभियान के दौरान अलगाववादी आवाजों की मुखरता से वह बहुत परेशान हो गए थे और उन्होंने 19 मार्च को लोकसभा में कहा था कि वह 'कांग्रेस के विरोधियों ने जो किया उससे बेहद हैरान हैं'.
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नेहरु का इशारा, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) की तरफ था. कहा जाता है कि उस समय पार्टी ने एक कट्टरपंथी अभियान चलाया था और चेन्नई (तब मद्रास) में सात सीटें जीती थीं. पार्टी वहां एक बड़ी ताकत बनकर उभरी थी. सन् 1962 के लोकसभा चुनाव और जुलाई 1963 के बीच हुए 10 उप-चुनावों में से, कांग्रेस केवल चार सीटें ही जीत सकी थी. अगस्त 1963 में, नेहरु सरकार को अपने पहले अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. सन् 1967 में विपक्षी दलों के साथ आने का कई राज्यों में प्रभाव पड़ा. लेकिन नेहरु अपनी पार्टी के पतन को देखने के लिए जीवित नहीं थे. 16 साल और 286 दिनों तक सेवा करने के बाद 27 मई, 1964 को हार्ट अटैक के कारण उनका निधन हो गया. वह भारत के इतिहास में पहले ऐसे पीएम थे जिसने इतने लंबे समय तक शासन किया था.
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