किसी भी पार्टी के लिए चुनाव चिह्न सबसे अहम हिस्सा होते हैं. चुनाव चिह्न न सिर्फ आम चुनावों में पार्टी की पहचान बनते हैं बल्कि मतदाताओं को मदद करते हैं कि वो अपने उम्मीदवारों की पहचान कर सकें. ये चुनाव चिह्न कितने अहम हैं लेकिन जब ये पार्टियां टूटती हैं तो यही चिह्न लड़ाई का सबसे बड़ा मसला बन जाते हैं. आज हम आपको बताते हैं कि आज देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पाटी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को मिले कमल का इतिहास क्या है और कैसे पार्टी ने राष्ट्रीय फूल को अपने चुनाव चिह्न के तौर पर चुना?
भारत में साल 1951-52 में जब पहले लोकसभा चुनाव हुए तो चुनाव आयोग को लगा कि सिंबल काफी महत्वपूर्ण हैं. ऐसे देश में जहां साक्षरता दर 20 फीसदी से भी कम थी, वहां पर चुनाव चिह्न की अहमियत पर जोर दिया जाने लगा. तब आयोग ने यह फैसला लिया कि प्रतीक ऐसे हों जिनसे लोग परिचित हों और उन्हें आसानी से पहचान सकें. साथ ही किसी भी धार्मिक या भावनात्मक जुड़ाव वाली वस्तु, जैसे गाय, मंदिर, राष्ट्रीय ध्वज, चरखा, आदि को चुनाव चिह्न के तौर पर नहीं दिखाना चाहिए.
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जिन पार्टियों को राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों के रूप में मान्यता दी गई थी, उन्हें चुनाव आयोग की तरफ से प्रस्तावित 26 प्रतीकों की सूची में से विकल्प की पेशकश की गई थी. भारतीय जनसंघ (बीजेएस) को सात सितंबर, 1951 को चुनाव चिन्ह के रूप में 'दीपक' यानी अलॉट किया गया था. बीजेएस ने 'दीपक' का प्रयोग तब तक जारी रखा जब तक कि सन् 1977 के चुनाव से पहले इसका अनौपचारिक रूप से जनता पार्टी में विलय नहीं हो गया. जनता पार्टी का जन्म चार राष्ट्रीय पार्टियों और कुछ गैर-मान्यता मिलीं पार्टियों के मिश्रण से हुआ था. लेकिन जनता पार्टी को जल्द ही कई विभाजनों का सामना करना पड़ा.
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छह अप्रैल, 1980 को, नेताओं का एक समूह जो पहले बीजेएस के साथ थे, दिल्ली में मिले और अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता घोषित किया. दोनों समूहों ने असली जनता पार्टी होने का दावा किया. हालांकि चुनाव आयोग ने फैसला सुनाया कि अंतिम निर्णय तक कोई भी नाम का उपयोग नहीं कर सकता. 24 अप्रैल, 1980 को चुनाव आयोग ने जनता पार्टी के प्रतीक 'पहिये में हलधर' को जब्त कर लिया. साथ ही वाजपेयी गुट को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नाम से एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता दी और फिर इसे 'कमल' के तौर पर चुनाव चिह्न मिला.
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