दलहन फसलों के घटते उत्पादन और बढ़ते आयात ने सरकार की चिंता बढ़ा दी है. क्योंकि इसकी वजह से दाम लगातार बढ़ रहा है. जिससे उपभोक्ता परेशान हैं. लेकिन, सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. क्यों किसान दलहन फसलों की खेती से दूर भाग रहे हैं. क्या उनकी फसल की खरीद नहीं हो रही है या फिर सरकारी नीतियों ने उन्हें इसकी खेती छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है. वजह जो भी हो, लेकिन अब सरकार ने यह तय कर लिया है कि दलहन फसलों के मामले में हमें भारत को आत्मनिर्भर बनाना है. केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय सहकारी निर्यात लिमिटेड (NCEL-National Cooperative Exports Limited) का औपचारिक एलान करते हुए यह भी कहा था कि हमें दलहन क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाना है. अब इस पर काम शुरू हो गया है.
शाह ने बताया था कि हमने नफेड और एनसीसीएफ (भारतीय राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता महासंघ) को दलहन उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम दिया है. देश को दलहन चाहिए तो कैसे हम आत्मनिर्भर बन सकते हैं, इस पर ये दोनों सहकारी संस्थाएं काम करेंगी. ये दोनों दलहन के किसानों का रजिस्ट्रेशन करेंगी. उनका मार्गदर्शन करेंगी. यह प्रयोग सफल होगा तो दूसरी फसलों में भी हम उसे आजमाएंगे. दरअसल, प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों, आवारा पशुओं और किसानों के कपास और सोयाबीन जैसी फसलों की ओर रुख करने की वजह से दलहन उत्पादन घट रहा है.
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भारत में 2022-23 में दलहन फसलों का 278.10 लाख टन उत्पादन हुआ है. यह अब तक का रिकॉर्ड है, यानी दालों का इतना उत्पादन कभी नहीं हुआ. पिछले साल के 273.02 लाख टन उत्पादन की तुलना में इस बार उत्पादन 5.08 लाख टन अधिक है. इसके बावजूद दलहन के मामले में भारत आत्मनिर्भर नहीं है. हम दूसरे देशों से दालें आयात कर रहे हैं. आयात बढ़ने की वजह से दालों का दाम बढ़ रहा है. लेकिन अब सरकार इसका उत्पादन बढ़ाने के लिए मिशन मोड में काम करेगी. सरकार उत्पादन बढ़ाने के लिए मुख्य रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और बिहार पर ध्यान केंद्रित करेगी.
दरअसल, इस समय दालों का घरेलू उत्पादन गिर रहा है और आयात बढ़ रहा है. जिससे सरकार चिंतित है. भारत ने साल 2021-22 में 16,628 करोड़ रुपये की दालों का आयात किया है. जबकि 2020-21 में यह सिर्फ 11,938 करोड़ रुपये था. बढ़ते आयात के बीच तूर दाल का थोक दाम 9897 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया है, जोकि एक साल पहले 6660 रुपये था. एक साल में करीब 48 फीसदी दाम बढ़ गया है. ऐसे में अब दलहन के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए काम शुरू किया जा रहा है. नेफेड को इस योजना के लिए प्राथमिक कार्यान्वयन एजेंसी के रूप में नियुक्त किया गया है.
अरहर का उत्पादन 1.2 मिलियन टन (एमटी) और मसूर का उत्पादन 500,000 टन बढ़ाने का प्रयास होगा. इसके लिए नफेड किसानों को उनकी पूरी उपज खरीदने के लिए फसल की बुवाई से पहले ही रजिस्टर्ड कर सकती है. वर्तमान में, तुअर के लिए बफर आवश्यकता 1 मिलियन टन और मसूर के लिए 500,000 टन है. अधिकारी ने कहा, सरकार का लक्ष्य योजना स्थापित होने के बाद 800,000 टन तुअर और 400,000 टन मसूर का बफर स्टॉक हासिल करना है.
वर्तमान में, मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस) के तहत, कृषि मंत्रालय कीमतें गिरने पर किसानों का समर्थन करने के लिए एमएसपी पर फसलें खरीदता है. जबकि मूल्य स्थिरीकरण कोष (पीएसएफ) के तहत, उपभोक्ता मामले विभाग बाद में उपयोग के लिए बफर स्टॉक के लिए एमएसपी या बाजार मूल्य पर दालें खरीदता है. अधिकारी ने कहा कि पीएसएस और पीएसएफ के पास उपलब्ध धनराशि का उपयोग किसानों को भुगतान करने और खरीद और भंडारण खर्चों को पूरा करने के लिए किया जाएगा.
कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत ने जून में समाप्त हुए पिछले सीज़न में 3.3 मिलियन टन तूर और 1.5 मिलियन टन मसूर का उत्पादन किया. जबकि पिछले वर्ष 4.2 मिलियन टन तुअर और 1.3 मिलियन टन मसूर का उत्पादन हुआ था. हालांकि तुअर की घरेलू मांग 4.4 मिलियन टन और मसूर की 2.4 मिलियन टन है. आने वाले साल में हालात और बदतर हो सकते हैं. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि फसल वर्ष 2023-24 के लिए पहले अग्रिम अनुमान में कुल खरीफ दालों का उत्पादन पिछले वर्ष के 7.8 मिलियन टन की तुलना में 7.1 मिलियन टन ही आंका गया है.
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दालों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए केंद्र सरकार ने अब 2023-24 की मूल्य समर्थन योजना के तहत अरहर (तूर), उड़द और मसूर दाल पर लगी 40 प्रतिशत की खरीद सीमा को हटा दिया है. इसका मतलब यह है कि सरकार के इस फैसले से बिना किसी सीमा के किसानों से एमएसपी पर इन दालों की खरीद की जा सकती है. इससे दालों की सप्लाई मार्केट में बढ़ेगी तो दाम काबू में रहेंगे और दूसरा, किसानों को दालों की अच्छी कीमत मिलेगी, जिससे वे उत्पादन बढ़ाएंगे.
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