
जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से खेती जूझ रही है. इस बीच समाधान के तौर पर फसलों के विविधीकरण (Crop diversification) का नारा उछल रहा है. सरकार का भी इस तरफ जोर है. नतीजतन, तीन कृषि कानूनों की समाप्ति के बाद खेती-किसानी के विषय पर मंथन के लिए केंद्र सरकार की तरफ से गठित कमेटी का एक प्रमुख विषय भी फसल विविधीकरण है. कुल मिलाकर सरकार किसानों से ज्यादा पानी वाली फसलों को छोड़ने के लिए कह रही है. लेकिन सवाल ये है कि क्या कहने भर से या नारा लगाने भर से किसान फसलों का पैटर्न बदल देंगे? आंकड़ों की कसौटी पर हम इसी सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे.
पंजाब और हरियाणा दोनों सूबों में पानी पाताल में जा रहा है. जहां कभी दलहन-तिलहन फसलों का बोलबाला था वहां अब धान और गेहूं की फसल कब्जा जमा चुकी है. मोनोक्रॉपिंग तेजी से बढ़ी है. मोनोक्रॉपिंग का मतलब एक ही भूमि पर साल दर साल एक ही फसल उगाने की प्रथा है. इससे न सिर्फ जमीन की उर्वरता खतरे में पड़ी है बल्कि भू-जल स्तर तेजी से गिर रहा है. सबसे ज्यादा चिंता गिरते भू-जल स्तर ने बढ़ाई है. इसीलिए हरियाणा और पंजाब दोनों सरकारें उन किसानों को 7000 रुपये प्रति एकड़ की मुआवजा राशि दे रही है जिन्होंने धान की खेती छोड़कर कम पानी की खपत वाली वैकल्पिक फसलों को अपनाया है.
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पिछले कुछ दशकों में पंजाब और हरियाणा में धान और गेहूं का एरिया तेजी से बढ़ा है. सबसे पहले पंजाब से शुरू करते हैं. यहां दलहन, तिलहन और बागवानी फसलों का एरिया बहुत कम हो गया है. पंजाब के कृषि विभाग के अनुसार वर्ष 1960-61 के दौरान राज्य में सिर्फ 4.8 फीसदी कृषि क्षेत्र में ही धान की खेती होती थी, जो 2020-21 तक 40.2 फीसदी तक हो गई. इसी दौरान गेहूं 27.3 फीसदी से बढ़कर 45.15 फीसदी एरिया तक पहुंच गया. दूसरी ओर, कम पानी की खपत वाली दलहन की फसल 19.1 फीसदी से घटकर 0.4 फीसदी एरिया में ही रह गई है. हरियाणा में भी धान-गेहूं का एरिया सबसे ज्यादा है.
दरअसल, धान और गेहूं के लिए एक तरफ एमएसपी मिलना तय है और दूसरी तरफ मुफ्त बिजली भी उपलब्ध है. इसने धान और गेहूं को पंजाब में सबसे ज्यादा लाभ देने वाली फसलों में शामिल कर दिया है. दलहन, तिलहन और मक्का पर भी एमएसपी है, लेकिन उनकी एमएसपी पर खरीद नाम मात्र की होती है. इसी कड़ी में हरियाणा और पंजाब दोनों की सरकारें अधिक पानी की खपत करने वाली धान-गेहूं की फसल के चक्र को तोड़ने के लिए मूंग, मक्का और कपास जैसी फसलों की खेती को प्रोत्साहित कर रही हैं, लेकिन इनका दाम सही न मिलने की वजह से क्रॉप डायवर्सिफिकेशन की कोशिश सफल नहीं हो पा रही है. नतीजा यह है कि धान और गेहूं का दबदबा कायम है.
धान-गेहूं की खेती ने पंजाब और हरियाणा में जल संकट बढ़ा दिया है. पहले बात पंजाब की करते हैं. बताया गया है कि राज्य के 150 ब्लॉकों में से 117 डार्क जोन में आ गए हैं. सूबे में 1980 के दशक में करीब 2 लाख ट्यूबवेल थे, जबकि अब 16 लाख से ज्यादा हो गए हैं. दूसरी ओर, हरियाणा के कुल 7287 गांवों में से 3041 पानी की कमी से जूझ रहे हैं. राज्य के 1948 गांव तो ऐसे हैं जो गंभीर जल संकट को झेल रहे हैं. इसकी वजह से सबसे बड़ी चुनौती भविष्य में खेती के सामने आने वाली है. क्योंकि भारत में करीब 90 परसेंट भू-जल का इस्तेमाल कृषि क्षेत्र में होता है.
हरियाणा और पंजाब दोनों की सरकारें धान की खेती कम करने की कोशिश में जुटी हुई हैं, इसलिए धान की जगह किसी कम पानी की खपत वाली फसल की खेती करने पर 7000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से पैसा दे रही हैं, ताकि क्रॉप डायवर्सिफिकेशन की ओर किसानों का रुझान बढ़े.
हालांकि, हरियाणा-पंजाब के किसानों के लिए यह स्कीम आर्थिक तौर पर मददगार साबित होगी या नहीं, इस पर कुछ तभी कहा जा सकता है जब इस स्कीम से धान की खेती का रकबा घट जाए. क्योंकि हर किसान खेती में अपना नफा-नुकसान देखकर ही आगे बढ़ेगा. देश में धान की खेती में सबसे कम लागत पंजाब के किसानों को आती है, इसलिए यहां पर इसकी खेती से रिटर्न राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अनुसार 2021-22 के दौरान पंजाब में धान उत्पादन की लागत प्रति हेक्टेयर 57,356 रुपये आई. जबकि कुल उत्पादन का मूल्य 1,44,386 रुपये हुआ. इसका मतलब रिटर्न 87,030 रुपये है, जो 151.7 फीसदी होता है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह महज 43.8 फीसदी है. ऐसे किसान धान की खेती तभी छोड़ेंगे तब दूसरी फसलों पर इस तरह का रिटर्न होगा या फिर 7000 रुपये प्रति एकड़ की प्रोत्साहन रकम से उसकी भरपाई हो.
सीजन 2024-25 के दौरान पंजाब में धान की ए2+एफएल लागत सिर्फ 907 रुपये प्रति क्विंटल है, जो देश में सबसे कम है. लेकिन वहां पर किसानों को एमएसपी उतनी ही मिलेगी जितनी कि सबसे अधिक लागत वाले महाराष्ट्र में मिलेगी. महाराष्ट्र में धान की उत्पादन लागत प्रति क्विंटल 3057 रुपये है.
पंजाब में प्रति क्विंटल धान उत्पादन की लागत राष्ट्रीय औसत 1533 रुपये से भी 626 रुपये कम है. सरकार ने 1533 रुपये की लागत पर 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर 2300 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी तय की हुई है. यानी एक क्विंटल धान पैदा करने में पंजाब के किसानों को देश में सबसे अधिक 1393 रुपये प्रति क्विंटल का फायदा होता है. ऐसे में पंजाब का किसान धान की खेती क्यों छोड़ेगा?
हरियाणा में धान की उत्पादन लागत 1331 रुपये प्रति क्विंटल आती है. यानी यहां पर 969 रुपये प्रति क्विंटल का मुनाफा होगा. जबकि राष्ट्रीय औसत पर प्रति क्विंटल रिटर्न 766.5 रुपये रहेगा. ऐसे में दूसरे सूबों के मुकाबले यहां पर धान की खेती ज्यादा लाभकारी है. अगर इतना रिटर्न है तो धान की खेती कौन छोड़ेगा. किसान ऐसा तभी करेगा जब दूसरी किसी फसल में इतना रिटर्न हो या फिर सरकार घाटे की भरपाई कर दे.
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) पंजाब में गेहूं की उत्पादन लागत भी देश में सबसे कम सिर्फ 832 रुपये प्रति क्विंटल है. जबकि 2275 रुपये की एमएसपी 1128 रुपये प्रति क्विंटल के राष्ट्रीय औसत के आधार पर तय हुई. सरकार ने इस लागत पर 102 फीसदी का मार्जिन दिया है. इसका अर्थ यह है कि 832 रुपये की लागत पर पंजाब के किसानों को भी 2275 रुपये क्विंटल दाम मिला और सबसे अधिक 2195 रुपये क्विंटल वाले महाराष्ट्र को भी यही दाम मिला.
इस तरह प्रति क्विंटल गेहूं पर पंजाब के किसानों को 1443 रुपये का फायदा हुआ जबकि महाराष्ट्र के किसानों के हाथ सिर्फ 80 रुपये का प्रॉफिट लगा. दूसरी ओर, हरियाणा के किसानों को गेहूं के उत्पादन पर प्रति क्विंटल लागत सिर्फ 988 रुपये आई. यानी हरियाणा के किसानों को 1287 रुपये प्रति क्विंटल का लाभ मिला. ऐसे में हरियाणा-पंजाब के किसान क्यों गेहूं और धान की खेती छोड़ेंगे.
पंजाब और हरियाणा में धान और गेहूं की खेती का दबदबा बढ़ा है तो इसके पीछे समय की जरूरत और खरीद की नीति को भी रेखांकित करना जरूरी है. पंजाब में उपजाए गए लगभग 97 प्रतिशत धान और लगभग 75-80 फीसदी गेहूं को सरकार द्वारा खरीदा जाता है. हरियाणा में भी कुछ ऐसा ही हाल है. वहीं दूसरी तरफ बिहार में 1 प्रतिशत और यूपी में 7 फीसदी से कम धान और गेहूं की सरकारी खरीद होती है. इसलिए पंजाब और हरियाणा के किसान धान और गेहूं की खेती कम करके दूसरी फसलों पर तभी शिफ्ट होंगे जब दूसरी फसलों की लागत पर गेहूं-धान जितना या उससे अधिक रिटर्न मिले.
धान-गेहूं चक्र से अलग हटकर पंजाब के फसल पैटर्न में विविधता लाने के लिए 1980 के दशक के अंत में एक सिफारिश आई थी. तब जानेमाने कृषि अर्थशास्त्री एसएस जोहल के नेतृत्व में एक कमेटी गठित की गई थी. कमेटी की रिपोर्ट 1986 में सामने आई और सिफारिश की गई कि पंजाब के संसाधनों को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए धान-गेहूं की फसलों के तहत कम से कम 20 प्रतिशत क्षेत्र को अन्य फसलों में शिफ्ट किया जाना चाहिए. लेकिन, इस पर अब तक अमल नहीं हो पाया, क्योंकि किसानों को गेहूं-धान के मुकाबले दूसरी फसलों में प्रॉफिट नहीं मिला.
दरअसल, धान और गेहूं की अधिक खेती अब संकट बन रही है. लेकिन, एक वक्त यह हमारी सबसे बड़ी जरूरत थी. साठ के दशक में हमारे भुगतान करने पर भी अंतरराष्ट्रीय बाजारों से हमें खाद्यान्न मुश्किल से मिलता था. हमें पीएल-40 नामक एक योजना के तहत अमेरिका से गेहूं मिल रहा था. जब देश में खाद्यान्नों की कमी थी उस वक्त हरित क्रांति का नारा दिया गया था. पंजाब और हरियाणा के किसानों ने हरित क्रांति में सबसे बड़ा योगदान दिया और देश को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाया.
इसी दौरान दोनों राज्यों में धान और गेहूं की हैसियत बढ़ती गई और बाकी फसलें हाशिए पर चली गईं. इस प्रक्रिया में पानी का खूब दोहन हुआ और रासायनिक खादों का जमकर इस्तेमाल हुआ. लेकिन अब समय बदल गया है. अब गेहूं और चावल के मामले में आत्मनिर्भर हैं. इसलिए पानी बचाने के लिए क्रॉप डायवर्सिफिकेशन कर सकते हैं.
सीएसीपी की रिपोर्ट का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि अगर पंजाब के किसान धान छोड़कर मक्के की खेती पर शिफ्ट होते हैं तो उन्हें भारी घाटा होगा. पंजाब में धान की खेती से जहां 151.7 फीसदी का रिटर्न है तो मक्के की खेती से सिर्फ 8.5 फीसदी का ही प्रॉफिट है. ऐसे में वो इसकी खेती तब तक नहीं करेंगे जब तक कि सरकार लाभ में होने वाले घाटे की भरपाई न कर दे.
हरियाणा में गेहूं की खेती से किसानों को 175.3 फीसदी का रिटर्न मिल रहा है. जबकि सरसों से 208.8 फीसदी रिटर्न है. ऐसे में गेहूं का एरिया सरसों से रिप्लेस किया जा सकता है. फसल बदलने में किसान जब तक आर्थिक तौर पर संतुलन नहीं बैठाएंगे तब तक क्रॉप डायवर्सिफिकेशन की राह आसान नहीं होगी. आप कुछ भी कहिए और करिए, किसान उन्हीं फसलों की बुवाई करेंगे जिनकी सरकारी खरीद ज्यादा होगी और जिनमें रिटर्न ज्यादा होगा.
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