
अब कम पानी में होगी बासमती धान की खेती. बासमती चावल को एक्सपोर्ट करके इस साल भारत ने 48 हजार करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की है, फिर भी कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि हम पानी एक्सपोर्ट कर रहे हैं. ऐसा कहने की एक वजह भी है, जो इसमें पानी की खपत से जुड़ी हुई है. पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश जैसे धान बेल्ट में बढ़ते भू-जल संकट की वजह से अब धान की खेती सवालों के घेरे में है. लेकिन बासमती से हम इतनी मोटी रकम की कमाई कर रहे हैं इसलिए इसकी खेती जारी रखते हुए वैज्ञानिकों ने दो ऐसी किस्में बनाई हैं जिनकी खेती में अन्य किस्मों के मुकाबले 30 फीसदी कम पानी लगेगा. बस इसकी सीधी बिजाई (DSR-Direct Seeding of Rice) करनी होगी. ये किस्में पूसा बासमती- 1979 और पूसा बासमती-1985 हैं. खास बात यह है कि इन किस्मों से किसानों की कमाई भी प्रति एकड़ 4000 रुपये बढ़ जाएगी. लंबे इंतजार के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) पूसा ने इसे बाजार में उतार दिया है.
इन दोनों किस्मों की अन्य खासियतों को बताने से पहले यह बता देता हूं कि पूसा ने इन दोनों किस्मों की बिक्री के लिए अभी सिर्फ एक कंपनी को लाइसेंस दिया है. 'रोबिनॉवीड' नाम से इन दोनों को बेचा जाएगा. पिछले दिनों पूसा से डायरेक्ट इन किस्मों का बीज लेने के लिए 600 किसानों ने रजिस्ट्रेशन करवाया था. जिन्हें बुधवार को एक-एक हजार रुपये में आठ-आठ किलो बीज बांटा गया. आठ किलो बीज एक एकड़ के लिए पर्याप्त है. अगले साल तक इसका और बीज तैयार हो जाएगा तब इसे पूरे बासमती बेल्ट में फैलाने में मदद मिलेगी. इन दोनों किस्मों के जरिए धान की खेती में ज्यादा पानी की खपत का कलंक मिट सकता है.
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पूसा के डायरेक्टर डॉ. अशोक कुमार सिंह का कहना है कि सामान्य तौर पर एक हेक्टेयर में धान की खेती करने पर पूरे सीजन में 150 लाख लीटर पानी की खपत हो जाती है. सबसे ज्यादा करीब 15 लाख लीटर पानी की खपत तो रोपाई के वक्त ही हो जाती है. लेकिन, पूसा बासमती- 1979 और पूसा बासमती-1985 की खेती करने पर इसमें से करीब 30 फीसदी यानी एक हेक्टेयर में 45 लाख लीटर पानी की बचत हो जाएगी. इसलिए ये दोनों किस्में हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे उन क्षेत्रो के लिए वरदान साबित होंगी जो जल संकट से जूझ रहे हैं. इसे विशेषतौर पर सीधी बिजाई के लिए तैयार किया गया है.

अगर धान की खेती कम पानी में करनी है तो उसका विकल्प सीधी बिजाई यानी डीएसआर विधि से धान की बुवाई है. इस विधि से धान की खेती करने पर न सिर्फ पानी का खर्च बहुत कम होगा बल्कि सरकार से सब्सिडी भी ली जा सकती है. हालांकि, इन फायदों के बावजूद अधिकांश किसान पारंपरिक तौर पर ही खेती करते हैं, जिनमें पानी की बहुत ज्यादा जरूरत होती है. आखिर इसकी वजह क्या है?
पूसा के डायरेक्टर डॉ. अशोक सिंह कहते हैं कि पारंपरिक विधि से खेती करने पर खेत में पानी रहता है, इसलिए खरपतवार की समस्या नहीं आती. पानी हर्बिसाइड का काम करता रहता है. जबकि सीधी बिजाई में खरपतवारों की समस्या आती है, क्योंकि खेत में पानी नहीं रहता. ऐसे में खरपतवारों को खेत से बाहर निकलवाने में किसानों को मजदूरों पर अच्छी खासी रकम खर्च करनी पड़ जाती है. यही नहीं खरपतवारों से पोषक तत्वों का भी नुकसान होता है. कृषि वैज्ञानिकों ने इस समस्या का हल इन दो किस्मों के रूप में खोज लिया है.
पूसा बासमती- 1979 और पूसा बासमती-1985, ये दोनों किस्में हर्बिसाइड टॉलरेंट (खरपतवार नाशक-सहिष्णु) हैं. यह देश की पहली गैर-जीएम हर्बिसाइड टॉलरेंट बासमती चावल किस्में हैं. इसका मतलब यह है कि इन किस्मों के बासमती धान के खेत में खरपतवार नाशी दवा का प्रयोग करने से धान को कोई नुकसान नहीं होगा. धान तो बिल्कुल ठीक रहेगा लेकिन खरपतवार खत्म हो जाएंगे. इसे रिलीज तो पहले ही कर दिया गया था लेकिन बाजार में पहली बार उतारा गया है. धान की सीधी बिजाई के लिए बासमती जीआई टैग एरिया के किसान इसका इस्तेमाल कर सकते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के सहायक महानिदेशक (बीज) डॉ. डीके यादव ने कहा कि सीधी बिजाई से बासमती धान की खेती करने पर किसानों के प्रति एकड़ लगभग 4000 रुपये बच जाएंगे. खरपतवार निकालने के लिए श्रमिकों की जरूरत नहीं होगी. रोपाई की जरूरत नहीं पड़ेगी. यही नहीं 30 फीसदी पानी की बचत होगी. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी 30 प्रतिशत की कमी आएगी. इस तरह से धान की खेती करने वाले किसान कार्बन क्रेडिट का भी फायदा ले सकते हैं. इस विधि से नई किस्मों की खेती करके किसान भावी पीढ़ियों के लिए पानी की बचत कर पाएंगे.
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