
हरित क्रांति ने पंजाब में तेज विकास से लेकर ठहराव और अब उससे उपजे एक बड़े संकट तक का चक्र पूरा कर लिया है. राज्य अब भू-जल संकट और खेती से मुनाफे में गिरावट के साथ-साथ पराली की समस्या का सामना भी कर रहा है. दरअसल, पिछले छह दशक में पंजाब में धान की खेती का दायरा आठ गुना बढ़ गया है. सूबे में पराली की समस्या की यही जड़ है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि जब देश भूख का शिकार था तब धान, गेहूं की पैदावार बढ़ाने के लिए वैज्ञानिकों और सरकारों की तारीफ हुई और अब जब धान एक नए संकट के साथ सामने आ रहा है तो सारी गलतियों का जिम्मेदार बेचारे किसानों को ठहराया जा रहा है. मंगलवार को पंजाब में पराली मामले पर हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पराली जलाने के लिए किसानों के पास कुछ कारण होगा.
दरअसल, पंजाब में वहां की सरकारों ने कुल उत्पादन के 80 फीसदी से लेकर 97 प्रतिशत तक धान को एमएसपी पर खरीदा और दूसरी फसलों को उपेक्षा की. इससे किसान दूसरी फसलें छोड़कर धान की तरफ शिफ्ट होते गए. पंजाब का किसान वही करता रहा जो कृषि वैज्ञानिकों ने बताया. वो उधर जाते रहे जिधर उन्हें सरकार ले गई. जब तक हरित क्रांति के फायदे दिखाई दे रहे थे तब तक तो सरकारों ने अपनी पीठ थपथपाई. कृषि वैज्ञानिकों ने अपना प्रमोशन करवाया और सरकारी खिताब हासिल किए. लेकिन जब खामियां सामने आने लगीं तो समाधान खोजने की जगह किसानों को ही मारा जाने लगा. उन पर एफआईआर की जाने लगी.
इसे भी पढ़ें: पराली से प्रदूषण फैलाने का सबसे बड़ा 'गुनहगार' है पंजाब सरकार, आंकड़े खोल रहे पोल
अब तो बात किसानों की जमीन जब्त करने तक आ गई है. पराली मैनेजमेंट करने में सरकारें फेल रही हैं. वैज्ञानिक इसका कोई सही रास्ता नहीं निकाल पाए हैं और जमीन कुर्क करने की धमकी किसानों को दी जा रही है. सवाल ये है कि ऐसी नौबत क्यों आई? क्यों न उन वैज्ञानिकों और तत्कालीन नेताओं पर एफआईआर दर्ज की जाए जो इसके लिए असल मायने में गुनहगार हैं. जो इस समस्या की जड़ हैं. जिन्होंने बाकी फसलों को छोड़ सिर्फ धान की खेती को बढ़ावा देकर पूरे राज्य को एक नए संकट में डाल दिया है. ताज्जुब की बात तो यह है कि एक तरफ पंजाब सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपने सूबे के किसानों को बलि का बकरा बनाने की कोशिश कर रही है तो दूसरी ओर पुलिस के जरिए उनका उत्पीड़न कर रही है.
कभी अपना देश अमेरिका के सामने अनाज के लिए गिड़गिड़ा रहा था. जब धान-गेहूं उगाकर किसानों ने देश का पेट भरा. अब किसानों को ही कुछ लोग पराली की समस्या का जिम्मेदार बता रहे हैं. जबकि विलेन तो कोई और है. लेकिन सवाल यह है कि सरकार के फेलियर का दंड किसान क्यों भुगते? किसान को सिर्फ दंड ही क्यों मिलेगा? हमेशा किसान दंड का पात्र ही क्यों होता है. साठ के दशक से अब तक सरकारों ने किसानों को धान की एमएसपी का एडिक्ट बना दिया है, दूसरी फसलें छुड़वा दी हैं तो फिर सुप्रीम कोर्ट के दंड का भागी किसान ही क्यों बने? सरकार को इसके लिए क्यों न दंडित किया जाए कि वो पराली मैनेजमेंट का सिस्टम बनाने में फेल रही हैं.
किसान तक ने पंजाब के कृषि विभाग के एक अधिकारी से ऐसा आंकड़ा प्राप्त किया है जो पराली संकट पर दूध का दूध और पानी का पानी कर देगा. राज्य सरकार का यह दस्तावेज बता रहा है कि जब हरित क्रांति की शुरुआत हो रही थी उससे पहले 1960-61 में सिर्फ 4.8 फीसदी एरिया में ही धान की खेती होती थी. यहां मक्का, बाजरा, दालें, तिलहन, गन्ना, कॉटन और अन्य फसलों का बोलबाला था. यानी पंजाब में धान की स्वाभाविक फसल नहीं होती थी. धान की फसल की यहां कोई औकात नहीं थी. लेकिन यहां के किसानों को उस वक्त के कृषि वैज्ञानिकों और सरकारों ने हरित क्रांति के नाम पर धान की खेती की भट्ठी में झोंक दिया. ऊपर से धान को प्रमोट करने के लिए इस भट्ठी में एमएसपी पर खरीद खरीद का भरपूर घी भी डाला गया.
यहां हम साफ कर देना चाहते हैं कि हम इस बात के पुरजोर समर्थक हैं कि किसानों को उनकी फसलों का एमएसपी मिलना चाहिए. लेकिन, जिस तरह से बाकी फसलों की उपेक्षा करके धान को तवज्जो दी गई वो बेहद खतरनाक कदम था. उसका खामियाजा आज पंजाब के लोग जल संकट और पराली संकट के रूप में भुगत रहे हैं. अब किसानों पर कोर्ट जो सख्त टिप्पणी कर रहा है उसके लिए किसान जिम्मेदार हैं या सरकार. इसे देखना होगा. अदालत ने यहां तक कह दिया है कि 'जो कोई भी खेत में आग लगाता है, उसे परिणाम भुगतना होगा. आप उसकी संपत्ति एक साल के लिए कुर्क कर सकते हैं.'
पंजाब में धान के सामने दलहन, तिलहन, गन्ना, कॉटन, मक्का और बाजरा की औकात बिल्कुल खत्म कर दी गई. जब सरकारों ने ऐसी पॉलिसी अपनाई तो अपनी आजीविका चलाने के लिए किसान क्या करता. जिस फसल की खरीद तय थी वो उसकी खेती बढ़ाता गया. नतीजा यह हुआ कि 1980 आते-आते यहां धान की खेती कुल कृषि योग्य एरिया के 17.5 फीसदी तक पहुंच गई. साल 1990 में यह 27 फीसदी और 2020 में 40 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गई. ऐसी ही नीतियां पंजाब में पराली समस्या की जड़ बन गईं. दरअसल, पराली 60 साल से पैदा की गई नीतिगत बीमारी है, जिसके लिए किसान किसी भी सूरत में जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
अब पंजाब के किसानों के साथ इस तरह का व्यवहार किया जा रहा है जैसे कि वो खलनायक हैं, जबकि अगर वो मेहनत न करते तो शायद एसी कमरों में बैठकर उनके खिलाफ बकवास करने वाले लोग आज कटोरा लेकर कहीं खड़े होते. पंजाब से ही अलग होकर हरियाणा बना है. हरियाणा को पंजाब का छोटा भाई बताया जाता है. छोटे भाई ने धान से बढ़ते जल संकट और पराली समस्या का काफी हद तक समाधान कर लिया है, लेकिन बड़ा भाई पंजाब समाधान करने की जगह किसानों और पराली पर सिर्फ पॉलिटिक्स में लगा हुआ है.
हरियाणा अपने किसानों से पुचकार कर जो काम करवा रहा है पंजाब की सरकार वही काम किसानों की कीमत पर करवाना चाहती है. हरियाणा सरकार ने कहा है कि जो किसान धान की खेती छोड़ेंगे उन्हें सरकार 7000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से प्रोत्साहन रकम देगी. अगर धान की बुवाई या रोपाई वाला खेत खुला छोड़ा जाएगा तो भी वो इसी हिसाब से पैसा देगी.
वर्ष | उत्पादन | खरीद | उत्पादन का प्रतिशत |
1980-81 | 48,50,000 | 44,32,000 | 91.4 |
1990-91 | 97,10,000 | 78,82,000 | 81.2 |
2000-01 | 1,37,35,000 | 1,10,57,000 | 80.5 |
2010-11 | 1,61,48,000 | 1,31,36,000 | 81.3 |
2018-19 | 1,91,30,000 | 1,70,27,000 | 89.0 |
2019-20 | 1,89,17,000 | 1,63,81,000 | 86.6 |
2020-21 | 2,08,84,000 | 2,03,96,000 | 97.5 |
Source: Punjab Govt |
पुचकार कर किसानों को राजी करने का असर यह हुआ है कि खरीफ वर्ष 2020 में 41,947 किसानों ने कुल 63,743 एकड़ क्षेत्र में धान की खेती छोड़ दी. जबकि इस साल यानी 2023 में 31 जुलाई तक कुल 32150 किसानों ने अपनी 70,170 एकड़ क्षेत्र में धान की खेती से तौबा कर लिया है. पंजाब सरकार इस तरह का कोई प्लान लाने की बजाय क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठी है और आज उसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट को किसानों के खिलाफ सख्त टिप्पणी करने पर विवश होना पड़ रहा है. यह किसानों के लिए कितनी पीड़ादायक बात है कि किसान से उसका खेत छीनने की बात की जा रही है, जैसे सूरज से कोई उसकी रौशनी छीनने की बात कर रहा हो.
इसे भी पढ़ें: दालों के बढ़ते दाम के बीच पढ़िए भारत में दलहन फसलों की उपेक्षा की पूरी कहानी
पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में क्या कहा इसे भी जान लीजिए. राज्य के महाधिवक्ता गुरमिंदर सिंह ने कहा कि राज्य में 31 लाख एकड़ धान की खेती होती है और यह पंजाब की मूल फसल भी नहीं है. सार्वजनिक वितरण योजना में उपयोग के लिए धान को खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत केंद्र द्वारा लाया गया था. पंजाब को धान की खेती के लिए प्रोत्साहन दिया गया. किसानों को यह लाभदायक लगा... लेकिन अब, हमें पीने का पानी खोजने के लिए 700 मीटर से 1000 मीटर तक खुदाई करनी पड़ेगी.''
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today