खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं. खड़ीन खेती में यह जुड़ाव स्पष्ट दिखता है. जैसलमेर जैसे शुष्क क्षेत्र में खड़ीन खेती व्यवस्था का यहां के पारिस्थितिकी तंत्र और पशुपालन में महत्वपूर्ण योगदान है. चूंकि खड़ीनों में पछैती बरसात यानी मावठ (सर्दियों में होने वाली बरसात) नहीं होती. इसीलिए खड़ीन मालिक किसान अगस्त महीने के पहले हफ्ते में जवार बो देते थे. खड़ीन स्पेशल सीरीज में किसान तक की इस चौथी रिपोर्ट में आपको खड़ीन खेती के जैसलमेर के इकोसिस्टम, पशुपालन में योगदान और महत्व के बारे में बताया जा रहा है. पढ़िए ये रिपोर्ट.
क्षेत्र में खड़ीनों और पानी के जानकार चतरसिंह जाम बताते हैं कि ज्वार की फसल 80 दिनों में पककर तैयार हो जाती थी. फिर किसान इसे जड़ के चार इंच ऊपर से काटते थे. इसी बची हुई चार इंच की जड़ का फुटान फरवरी-मार्च में होता था. इसे दोई जवार कहते हैं. इससे किसानों को अनाज और पशुओं के लिए चारा मिलता था. यह सब मैंने अपने जीवन में देखा है.
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इंदिरा गांधी नहर आने के बाद से ज्वार होना बंद हो गया क्योंकि इसका बीज ही खत्म हो गया. इस बात से नाराज और दुखी जाम कहते हैं कि ज्वार का अनाज व चारा मीठा होता था. इसकी दो किस्में थीं- गेगर और ल्यो. जैसलमेर में इंदिरा गांधी नहर आने के बाद जंगली सुअरों की संख्या क्षेत्र में काफी बढ़ी है. उन्होंने जवार को खाना शुरू कर दिया. इससे जवार का बीज ही खतम हो गया है. इसीलिए अब खड़ीनों में जवार पैदा नहीं हो पाता.
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जाम जोड़ते हैं कि चूंकि खड़ीनों में बाकी जगहों से नमी ज्यादा रहती है. इसीलिए इनमें कई तरह की औषधीय जड़ी-बूटी उग आती हैं. इनमें शंखपुष्पी, आइंद, ककड़ा, झीलो, रोवो, सिनावड़ी, कल, मौथ, बेकर, गौरख बूटी, कांटी, गोखरू, रिगणी, बेर, कैर, खेजड़ी, करड़, गूगल, लुगसा, चामकस और हाड़े का खेत वनस्पतियां हैं. ये औषधीय पौंधे अन्य जगहों की अपेक्षा खड़ीनों और उसके आस-पास के क्षेत्र में ज्यादा देखने को मिलती हैं. क्योंकि इन्हें उनके अनुकूल हवा, पानी और वातावरण मिलता है.
चूंकि खड़ीन अन्य जगहों की तुलना में ठंडी और पानी वाली जगह होती थी. इसीलिए मैदानों में रहने वाले जंगली जानवर जैसे खरगोश, हिरण, चिंकारा हिरण, लोमड़ी यहां रात में पानी पीने और शिकार करने आते हैं. खड़ीनों में मौजूद पेड़ों पर हजारों प्रजातियों की चिड़ियाएं और प्रवासी पक्षी भी आते हैं.
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इतना ही नहीं, अनाज पैदा होने के बाद यहां खेतों में दाने को खाने चूहे आते हैं इसीलिए बरसात के दिनों में पानी के साथ बहकर आए सांप खड़ीनों में ही बिल बनाकर रहते हैं. ठंडी जगह होने के कारण चील भी सबसे ज्यादा खड़ीनों के आसमान में मंडराती हैं. जाम कहते हैं, “प्रकृति ने हमें एक-दूसरे पर निर्भर रहकर जीना सिखाया है. खड़ीनों में यह निर्भरता को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.”
खड़ीनों में गर्मियों में फसल कटाई हो जाती है. इस दौरान ही कैर और सांगरी में फल आते हैं. इन फलों को पशुपालकों की मवेशी बहुत ही चाव से खाती हैं. चतर सिंह जाम कहते हैं, “खड़ीनों में तापमान बाहर की तुलना में 8-10 डिग्री तक कम रहता है. जैसलमेर में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के पार चला जाता है, लेकिन उसी वक्त में खड़ीनों में तापमान 40 के आसपास रहता है. इसीलिए पशु इन खड़ीनों में आ जाते हैं. नमी से यहां घास उगी रहती है, उसे जानवर खाते हैं. इस तरह गर्मियों में भी पशुओं को हरा चारा मिलता है.”
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जाम बताते हैं कि खड़ीनों को कई साल मेहनत के बाद बनाया जाता है. इसके लिए अंधड़ के साथ आने वाली रेत को रोका जाता है. रेत रोकने के लिए कांटों की बाड़ बनाई जाती है. इसी बाड़ पर खड़ीन की नमी पाकर अनेक वनस्पति इनकी पाल पर उग आती हैं. आंधियों में उड़कर आने वाली रेत-मिट्टी इन वनस्पतियों में फंस जाती है. इससे पाल मजबूत, ऊंची और चौड़ी होती जाती है. यह सब कुदरती होता है.
जाम कहते हैं कि खड़ीन व्यवस्था को अगर ठीक से समझें तो किताबों में पढ़ाया जाने वाला पारिस्थितिकी तंत्र यहां स्पष्ट रूप से दिखाई देता है.
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