झटपट कमाई के चक्कर में किसानों की एक बड़ी तादाद सोयाबीन से मक्के की खेती की ओर भाग रही है. ये किसान सोयाबीन से अधिक जोर मक्के पर दे रहे हैं. इन किसानों को लगता है कि सोयाबीन के झंझट में इतना क्यों पड़ना जब मक्का कम मेहनत और कम लागत में अच्छी कमाई दे जाता है. सोयाबीन के साथ जहां मौसम की मार और एमएसपी पर बिक्री जैसे कई झंझट हावी हैं, वहीं मक्का इन सब परेशानियों से मुक्त है. अब तो इसे नकदी फसल भी मान लिया गया है. लिहाजा किसान सोयाबीन को छोड़कर मक्के की ओर तेजी से रुख कर रहे हैं. ऐसे में सवाल है कि सरकार के उस तिलहन मिशन (oilseeds mission) का क्या होगा जिसमें खाद्य तेलों के आयात को कम करना है.
दरअसल, इथेनॉल में जब से मक्के की भूमिका बढ़ी है, तब से सोयाबीन की तुलना में मक्के को अधिक महत्व दिया जा रहा है. इससे राष्ट्रीय तिलहन मिशन पर चुनौती बढ़ती जा रही है जिसमें सरकार का जोर देश में तिलहन की खेती को विस्तार देना है. सरकार का ध्यान इस ओर ज्यादा है कि किसानों को तिलहन की खेती के लिए प्रोत्साहित कर खाद्य तेलों के आयात को कम किया जाए. लेकिन जब किसान सोयाबीन जैसी तिलहन फसल को छोड़कर मक्के की ओर रुख करेंगे, तिलहन मिशन पर दबाव पड़ना लाजिमी है.
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आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश में खरीफ 2024 के दौरान मक्का का रकबा पिछले साल के 15.3 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 20.8 लाख हेक्टेयर हो गया, जबकि सोयाबीन का रकबा 60.6 लाख हेक्टेयर से घटकर 57.77 लाख हेक्टेयर रह गया. इसी तरह, महाराष्ट्र में सोयाबीन का रकबा 51.15 लाख हेक्टेयर से घटकर 50.52 लाख हेक्टेयर रह गया और मक्का का रकबा 9.09 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 11.07 लाख हेक्टेयर हो गया.
इस बदलाव से तिलहन, विशेष रूप से सोयाबीन के रकबे में कमी आ सकती है, जो घरेलू तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देने की कोशिशों पर बुरा असर डाल सकता है. मौजूदा खरीफ सीजन में मक्का के रकबे में बड़ी वृद्धि हुई है और यह ट्रेंड रबी सीजन में भी जारी रहने की उम्मीद है.
इससे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सोयाबीन सहित तिलहन की खेती के रकबे में कमी आई है जबकि पारंपरिक रूप से ये राज्य सोयाबीन के प्रमुख उत्पादक हैं. इन राज्यों में किसान अभी तक सोयाबीन को ही नकदी फसल मानते हुए बड़े पैमाने पर खेती करते आए हैं.
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विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर मक्का की खेती का रकबा बढ़ता रहा, तो इससे तिलहन फसलों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में कमी आ सकती है, जिससे खाद्य तेल आयात पर अपनी निर्भरता कम करने के भारत के प्रयासों को झटका लगेगा. भारत दुनिया में खाद्य तेलों का सबसे बड़ा आयातक है, और देश इन आयातों पर बहुत बड़ी राशि खर्च करता है.
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