बरवा रोग और स्टेमफिलियम ब्लाइट दलहन फसलों का है दुश्मन, बचाव के आसान उपाय जानिए

बरवा रोग और स्टेमफिलियम ब्लाइट दलहन फसलों का है दुश्मन, बचाव के आसान उपाय जानिए

देश के कई स्थानों पर जायद में मूंग और उड़द आदि की खेती भी की जाती है. हमारे देश में लगभग 260 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती की जाती है, जिसका वार्षिक उत्पादन लगभग 140 लाख टन है. संतुलित आहार में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 80 ग्राम दालें आवश्यक हैं. ऐसे में जरूरी है कि दाल कि पैदावार सही ढंग से हो ताकि देश में दलों की पूर्ति हो सके.

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बरवा रोग और स्टेमफिलियम ब्लाइट दलहन फसलों का है दुश्मन, बचाव के आसान उपाय जानिएदलहनी फसलों पर रोग का खतरा

भारत में सदियों से उगाई जाने वाली फसलों में दलहनी फसलों का महत्वपूर्ण स्थान है. ये फसलें आमतौर पर प्रोटीन का मुख्य स्रोत मानी जाती हैं. जिस वजह से इन फसलों की खेती पर विशेष ध्यान दिया जाता है. दलहनी फसलों के अंतर्गत अरहर, मूंग और उड़द की खेती खरीफ मौसम में साथ ही चना, मसूर, राजमा और मटर की खेती रबी मौसम में की जाती है. देश के कई स्थानों पर जायद में मूंग और उड़द आदि की खेती भी की जाती है. हमारे देश में लगभग 260 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में दलहनी फसलों की खेती की जाती है, जिसका वार्षिक उत्पादन लगभग 140 लाख टन है. संतुलित आहार में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 80 ग्राम दालें आवश्यक हैं. ऐसे में जरूरी है कि दाल कि पैदावार सही ढंग से हो ताकि देश में दलों की पूर्ति हो सके. दाल की खेती कर रहे किसानों की बात करें तो इस समय उन्हें कई रोगों का खतरा रहता है जो ठंड की वजह से होता है. ऐसे में किसान इन आसान तरीकों को अपना कर फसलों को कीटों से बचा सकते हैं. 

वर्तमान समय में तापमान के उतार-चढ़ाव के साथ बादल छाये रहने, बुंदा-बांदी और कुहासा जैसे मौसम के कारण किसानों को अपनी खड़ी फसलों चना, मटर, मसूर, गेहूँ और मिर्च पर खास ध्यान देने की जरूरत है. ऐसे बदले मौसम में फसलों को निम्नांकित कीट-व्याधियों से सुरक्षा आवश्यक है. दलहानी फसलों की बात करें तो इन रोगों का खतरा सबसे अधिक होता है.  

क्या है बरवा रोग और लक्षण

इस मौसम में जहाँ तापमान बहुत तेजी से नीचे गिर रहा हो वैसी स्थिति में चना, मटर, मसूर तथा गेहूँ में बरवा रोग के आक्रमण की संभावना बनी रहती है. वर्षा के उपरान्त वायुमंडल का तापमान गिरने से इस रोग के आक्रमण बढ़ने की संभावना अधिक बन जाती है. चना के पौधों (पत्तियों तथा टहनियों) और फलियों पर गोलाकार प्यालीनुमा सफेद भूरे रंग के फफोले बनते हैं. ये फफोले बाद में काले हो जाते हैं. मसूर में भी इसी प्रकार के फफोले बनते हैं जो बाद में पौधों को सूखा देते हैं. मटर में भी इसी प्रकार के फफोले बनकर तना को विकृत कर देते हैं तथा अन्त में पौधा सूख जाता है.

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कैसे करें रोकथाम

  • हालाँकि यह रोग पौधों में हर साल नहीं होता है, लेकिन पौधों में इस रोग के आक्रमण का पता तभी चलता है जब कवक प्रजनन अवस्था में पहुँच जाता है. इसलिए शुरुआत में छिड़काव लाभकारी नहीं होता है. इस बीमारी के लिए वातावरण अनुकूल होते ही बचाव के उपाय करना बुद्धिमानी होगी.
  • बुआई के समय रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें.
  • बुआई से पहले बीज का उपचार कार्बेन्डाजिम 50% 2 ग्राम या जैविक फफूंदनाशक ट्राइकोडर्मा 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए. बिना बीजोपचार किये बीज न बोएं.
  • प्रोपिकोनाजोल 25% ईसी 500 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
  • खड़ी फसल में फफूंद का उपरोक्त वातावरण बनते ही मैंकोजेब 75% जी.यू. का छिड़काव करें. 2 किलोग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से.

स्टेमफिलियम ब्लाईट रोग और लक्षण

यह रोग मुख्यतः चना और मसूर में लगने वाला एक प्रमुख रोग है. स्टेमफिलियम सरसिनिफर्मी नामक फफूँद इसका मुख्य कारक है, जिससे रोग होता है. पत्तियों पर बहुत छोटे मूरे काले रंग के धब्बे बनते हैं. पहले पौधों के निचली भाग की पत्तियाँ झड़ती है और ऊपरी भाग पर फैलती जाती है. रोग खेत में एक स्थान से शुरू होकर धीरे-धीरे चारों ओर फैलती है. रोग का खतरा अधिक होने पर पत्तियाँ झड़ जाती है और फसल की भारी क्षति हो जाती है. पौधों की वानस्पतिक वृद्धि, अधिक आर्द्रता तथा तापमान 15-20 डिग्री सेल्सियस का रहना इस बीमारी की वृद्धि का कारण होता है. 

कैसे करें रोकथाम

उपयुक्त वातावरण बनने पर सतर्क रहें और शुरुआत में प्रभावित पौधों को खेत से हटा दें और उन्हें नष्ट/जला दें. बुआई से पहले अनुशंसित फफूंदनाशकों से बीजों का उपचार अवश्य करें. उपयुक्त वातावरण बनते ही मैंकोजेब 75 प्रतिशत 2 किलोग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का सुरक्षात्मक छिड़काव करना चाहिए.

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