बिहार में केला की खेती ने पिछले दो दशकों में नई ऊंचाइयों को छुआ है. 2004-05 में जहां 27,200 हेक्टेयर में केला उगाया जाता था, वहीं 2022-23 में यह रकबा बढ़कर 42,900 हेक्टेयर तक पहुंच गया. उत्पादन भी 5.45 लाख मीट्रिक टन से बढ़कर 19.22 लाख मीट्रिक टन हो गया. यानी, 261% की बढ़त. इसके साथ ही प्रति हेक्टेयर उत्पादकता भी 20 टन से बढ़कर 45 टन तक पहुंच गई.
लेकिन इस चमकती तस्वीर के पीछे एक गंभीर खतरा लगातार मंडरा रहा है— 'पीला सिगाटोका' रोग, जो किसानों की मेहनत पर पानी फेर रहा है.
कृषि विभाग के वैज्ञानिकों के मुताबिक यह फफूंदजनित रोग है, जो केले की पत्तियों पर पहले हल्के पीले दाग के रूप में दिखता है. बाद में ये दाग भूरे और कत्थई रंग के हो जाते हैं और पत्तियों को पूरी तरह सुखा देते हैं. इसका असर पौधे की फोटोसिंथेसिस क्षमता पर पड़ता है और अंत में उत्पादन घटता है.
राज्य के कृषि विभाग ने किसानों को चेताते हुए कहा है कि "केले में पीला सिगाटोका रोग का असर तेजी से बढ़ रहा है. किसानों को सलाह दी जाती है कि वे प्रतिरोधी किस्म के पौधे लगाएं, खेतों में जलजमाव न होने दें और जब रोग दिखे तो 1 किलो ट्राईकोडरमा विरिड + 25 किलो गोबर खाद प्रति एकड़ मिट्टी में मिलाकर डालें."
बिहार में हाजीपुर और आसपास के इलाकों में केला की खेती बड़े पैमाने पर होती है, लेकिन फिर भी बाजार पर आंध्र प्रदेश के केले का दबदबा बना हुआ है. पटना फ्रूट्स एंड वेजिटेबल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष जय प्रकाश वर्मा बताते हैं, "पटना की मंडियों में सालभर 8-10 ट्रक केले आंध्र प्रदेश से आते हैं. जबकि बिहार का केला मौसमी होता है."
हाजीपुर के किसान अवधेश कुमार सिंह बताते हैं कि "पिछले कुछ वर्षों में रोग और आंधी-तूफान ने फसल को काफी नुकसान पहुंचाया है. पीला सिगाटोका का प्रकोप भी बढ़ रहा है. उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन लागत वसूलना मुश्किल हो गया है."
केला उत्पादन में बिहार ने भले ही रिकॉर्ड तोड़े हों, लेकिन जलवायु परिवर्तन, बीमारियां और बाजार की प्रतिस्पर्धा किसानों के लिए बड़ी चुनौती बन रही हैं. समय रहते यदि रोग प्रबंधन और मार्केट लिंक मजबूत नहीं किए गए, तो किसानों की मेहनत पर हर साल पानी फिरता रहेगा.
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