भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक, अल नीनो न केवल खरीफ मौसम पर प्रभाव डाल सकता है, बल्कि रबी फसलों पर भी इसका असर होगा. मई 2024 तक अल नीनो का प्रभाव जारी रहेगा, इसके कारण मार्च से आगे के समय बेहद अधिक तापमान हो सकता है. यहां तक कि इस प्रकार का आकलन किया जा रहा है कि अगर ऐसा होता है, तो यह देश के किसानों के लिए रबी फसल गेहूं पर अधिक असर डाल सकता है. 2022 में मार्च में तापमान के बढ़ने और हीटवेव के कारण गेहूं के उत्पादन में कमी आई थी. एक अध्ययन के अनुसार, 2050 में जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूं की पैदावार में 19.3 फीसदी की कमी हो सकती है. सरकार और कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को सलाह दी जा रही है कि वे जलवायु प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें. सवाल यह है कि अल नीनो और जलवायु परिवर्तन के बीच क्या देश के किसान गेहूं की जलवायु प्रतिरोधी किस्मों के बारे में जानते हैं?
आगामी रबी सीजन में देश में सरकार 60 फीसदी यानी 300 लाख हेक्टेयर गेहूं की जलवायु प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई की योजना बना रही है. इसके लिए जलवायु प्रतिरोधी गेहूं की किस्मों की लगभग 30 से 35 लाख टन बीजों की जरूरत होगी. लेकिन इसकी उपलब्धता के बारे में स्पष्ट जानकारी प्रदान नहीं की गई है. किसानों को यह कैसे उपलब्ध होगा, इसका रोडमैप अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है. लेकिन अगर सरकार ने इसकी कोई योजना बनाई है, तो इसकी व्यवस्था भी की गई होगी.
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गेहूं की बुवाई अक्टूबर में शुरू होती है, जबकि कटाई अप्रैल-मई में शुरू होती है. गेहूं की बुवाई के समय 19 से 23 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की जरूरत होती है. इसी तरह, मार्च माह में गेहूं की फसल की वृद्धि और विकास के लिए 21 से 26 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान उपयुक्त होता है. अगर मार्च माह में तापमान बढ़ता है और यह 32 से 35 डिग्री सेेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है, तो इससे गेहूं की फसल को नुकसान हो सकता है. अधिक तापमान का गेहूं के उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ता है. इससे गेहूं के दाने पूरी तरह से नहीं भर पाते और हल्के रह जाते हैं
आईसीएआर-केंद्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद, नेशनल इनोवेशन इन क्लाइमेट एडाप्टेबल एग्रीकल्चर ने 2019 में बताया था कि विभिन्न राज्यों के लिए जलवायु प्रतिरोधी गेहूं की 25 किस्में विकसित की गई हैं. वही भारतीय गेहूं जौ संस्थान, करनाल ने DBW-187, DBW-303, DBW-327, DBW-332, DBW 370, DBW 371 और DBW 372 किस्में विकसित की हैं, जो मार्च में पकती हैं. जहां तक गर्मी सहन करने वाली किस्मों की बात है, तो डीबीडब्ल्यू 187 और डीबीडब्ल्यू 222 किस्में भारतीय गेहूं जौ सस्थान करनाल द्वारा विकसित गई हैं. HDCSW-18, HD 2067, HD 3086, HD 3410, HD 3090, HD-3385 भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा द्वारा विकसित की गई हैं. ये भी गर्मी की सहनशील किस्में हैं.
आईआरआई के कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, जलवायु प्रतिरोधी किस्मों में जो विकसित किया गया है, इन किस्मों में फूल आने से पहले कम तापमान की जरूरत होती है. इन किस्मों की बुवाई 20 से 25 अक्टूबर तक करने पर 100 से 110 दिनों बाद फूल आते हैं. इसके बाद परागण में चार से पांच दिनों का समय लगता है. फिर पौधे में दाना बनने और सख्त होने की प्रक्रिया के लिए फरवरी में पूरा समय मिलता है. इस प्रक्रिया के दौरान 30 से 40 दिनों की अवधि तक तापमान को 30 डिग्री के आसपास बनाए रखना चाहिए. इस दौरान पौधे के तने और पत्तियों के माध्यम से उपलब्ध पोषण तत्वों का उपयोग दाने को भरने और सख्त करने के लिए किया जाता है. जल्दी बोई जाने वाली गेहूं की किस्म पौधों को विकसित होने के लिए पूरा समय देती है और इसके कारण इसके दानों का वजन भी अधिक रहता है. साथ ही, यह गर्मी और ठहरने को भी झेलने में सक्षम है.
रबी की फसलों की बुवाई की रणनीति बनाने के लिए मंगलवार को नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था. भारत सरकार के कृषि सचिव मनोज आहूजा ने कहा कि सरकार ने सभी राज्यों से जलवायु और परिस्थितियों के आधार पर जलवायु प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई की रणनीति तैयार करने का अनुरोध किया है, जिससे जलवायु प्रतिरोधी गेहूं की किस्में बोई जा सकें. जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बावजूद, केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने 2023-24 रबी सीजन में 1140 लाख टन का रिकॉर्ड गेहूं उत्पादन हासिल करने का लक्ष्य रखा है, जबकि एक साल पहले की अवधि में वास्तविक उत्पादन 112.74 लाख टन था. पिछले साल की तुलना में 27 लाख टन से अधिक उत्पादन करने का लक्ष्य है.
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लेकिन सरकार के सामने सवाल है कि जलवायु प्रतिरोधी किस्मों के बारे में किसानों तक जानकारी कैसे पहुंचाई जाएगी. इसे लेकर बड़े स्तर पर जागरुकता अभियान चलाना होगा. आज भी अधिकांश किसान अपने पुराने बीज बोते हैं. दूसरी ओर, धान की अधिकांश किस्मों की कटाई अक्टूबर से लेकर 15 नवंबर तक चलती रहती है. इसके किसान मुख्य रूप से 15 नवंबर के बाद ही गेहूं की बुवाई करते हैं और यह प्रक्रिया 15 दिसंबर तक चलती है. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में जनवरी के पहले सप्ताह तक गेहूं की बुवाई की जाती है. इन सभी परिस्थितियों के बीच, अगर हम सफल बोते हैं, तो हम उत्पादन के लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं. इसके साथ ही, जलवायु प्रतिरोधी किस्मों के गेहूं की लगभग 30 से 35 लाख टन बीजों की जरूरत होगी.
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