तकनीक से दूरी बनी किसानों के लिए नुकसान का कारण, लगातार सिमटती जा रही कपास की खेती

तकनीक से दूरी बनी किसानों के लिए नुकसान का कारण, लगातार सिमटती जा रही कपास की खेती

पूर्वी राजस्थान के किसान पारंपरिक तरीके से कर रहे कपास की खेती, तकनीकी जानकारी की कमी से घट रहा उत्पादन, लागत बढ़ने और मंडी में कम दाम से कपास की खेती बन रही अलाभकारी.

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तकनीक से दूरी बनी किसानों के लिए नुकसान का कारण, लगातार सिमटती जा रही कपास की खेतीदेश में लगातार घट रहा कपास का रकबा (फाइल फोटो)

कभी किसानों के लिए मुनाफे की फसल मानी जाने वाली कपास अब पूर्वी राजस्थान के किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है. इसका मुख्य कारण है तकनीक से दूरी और पारंपरिक खेती पर निर्भरता. किसान आज भी कपास की खेती पुराने ढर्रे पर कर रहे हैं, जबकि बदलते मौसम, बढ़ते रोग और कीटों के हमले से निपटने के लिए उन्नत तकनीक और वैज्ञानिक तरीके जरूरी हो गए हैं.

कृषि विभाग के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 में 72,404 हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की बुवाई हुई थी, लेकिन 2024 तक यह घटकर 21,299 हेक्टेयर और 2025 के पूर्वानुमान के अनुसार केवल 25,472 हेक्टेयर तक सिमट गया है.

हर साल घटता कपास का रकबा:

वर्ष रकबा (हेक्टेयर में)
2019 72,404
2020 63,197
2021 55619
2022 45271
2023 22314
2024 21299
2025 25,472 (अनुमानित)

तकनीक की कमी से कम हो रही पैदावार

जहां पहले एक बीघा में 20 मन कपास होता थी, अब वह घटकर 5-7 मन प्रति बीघा रह गया है. ऊपर से बीज, खाद, दवा और सिंचाई का खर्च बढ़ गया, लेकिन मंडियों में कपास का भाव 6000 रुपये प्रति क्विंटल तक ही मिल रहा है, जबकि उत्पादन लागत 7000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच चुकी है.

कृषि विभाग के अधिकारी अरविंद कुमार का कहना है कि किसान अगर मिट्टी की समय-समय पर जांच, उचित कीटनाशकों का प्रयोग और बुवाई में वैज्ञानिक विधियों का उपयोग करें, तो उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. उन्होंने बताया कि कपास की खेती के लिए खास तकनीकी जानकारी और प्रशिक्षण की जरूरत होती है.

जिन क्षेत्रों में होती है कपास की खेती:

  • रामगढ़
  • गोविंदगढ़
  • बड़ौदामेव
  • राजगढ़
  • मालाखेड़ा
  • अकबरपुर

कृषि विशेषज्ञों का क्या है कहना

कृषि विभाग के सहायक निदेशक सांख्यिकी अरविंद कुमार ने बताया कि अलवर जिले में लगातार कपास की बुवाई में कमी आ रही है. वर्ष 2019 में जिले में 72 हजार हेक्टेयर में कपास की बुवाई की गई थी. वहीं इस साल यह रकबा घटकर 25 हजार हेक्टेयर तक सिमट गया है. उन्होंने बताया कि कॉटन के ट्रेंड को देखें तो हर साल बुवाई के रकबे में कमी आ रही है. कपास बुवाई का कम होने वाला रकबा कभी प्याज और कभी बाजरा और सरसों में बंटता रहा है. उन्होंने बताया कि अलवर जिले में कपास की फसल ज्यादातर रामगढ़, गोविंदगढ़, बड़ौदामेव, राजगढ़, मालाखेड़ा, अकबरपुर सहित अन्य क्षेत्र में ज्यादा की जाती है.

किसान तकनीक की नहीं लेते मदद

कृषि विभाग के अधिकारी अरविंद कुमार ने बताया कि किसान कपास की बुवाई में तकनीक की मदद नहीं लेते हैं. इसलिए फसल का पूरा उत्पादन नहीं मिल पाता और किसानों को नुकसान होता है. किसानों को समय-समय पर अपनी मिट्टी की जांच करवानी चाहिए. फसल के दौरान निर्धारित मानक के अनुसार दवाई और केमिकल का उपयोग करना चाहिए. साथ ही कपास की फसल की बुवाई में फसल के बीच में एक घास की मेड़ तैयार की जाती है.

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