भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां हमारे मेहनती किसान दिन-रात काम करके पूरे देश का पेट भरते हैं. यहां गेहूं और चावल जैसी फसलों की बंपर पैदावार होती है, लेकिन इसी पैदावार के साथ एक गंभीर समस्या भी जुड़ी हुई है - फसल के अवशेष यानी पराली का प्रबंधन. सबसे ज्यादा पराली धान 43% फीसदी, गेहूं 21% और गन्ने 19 % फसलों से निकलती है. इस कृषि चक्र का एक स्याह पहलू तब सामने आता है, जब अगली फसल की तैयारी की जल्दी में किसान इन अवशेषों को खेत में ही आग के हवाले कर देते हैं.
हर साल अक्टूबर-नवंबर में दिखने वाला धुएं का काला बादल इसी का नतीजा है. लेकिन यह आग सिर्फ पराली को ही नहीं जलाती, बल्कि हमारे पर्यावरण, हमारी सेहत, मिट्टी की उपजाऊ शक्ति और अर्थव्यवस्था को भी राख कर देती है. यह एक ऐसा मजबूरी में उठाया कदम है, जिसका असर चौतरफा होता है.
कई किसान यह मानते हैं कि पराली जलाने से खेत जल्दी साफ हो जाता है और मिट्टी को पोषक तत्व मिलते हैं, लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है. सच तो यह है कि किसान इस आग में पराली के साथ-साथ अपनी मिट्टी की जान भी जला देता है. एक टन धान की पराली में लगभग 400 किलो कार्बन, 5.5 किलो नाइट्रोजन, 2.3 किलो फॉस्फोरस और 25 किलो पोटेशियम जैसे कीमती पोषक तत्व होते हैं. जब पराली जलाई जाती है, तो ये सभी तत्व धुएं में उड़ जाते हैं. नतीजतन, किसान को अगली फसल के लिए इन पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु महंगा रासायनिक खाद खरीदना पड़ता है.
आग की गर्मी से मिट्टी का तापमान 35 से 42 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. यह गर्मी केंचुए और अन्य करोड़ों सूक्ष्मजीवों को मार देती है, जो मिट्टी को उपजाऊ और भुरभुरा बनाने का काम करते हैं. ये 'मित्र कीट' ही मिट्टी की असली ताकत होते हैं. इनके मरने से मिट्टी धीरे-धीरे बंजर होने लगती है. पराली मिट्टी के लिए जैविक कार्बन का सबसे अच्छा स्रोत है. इसे जलाने से मिट्टी की ऊपरी परत कठोर हो जाती है, जिससे उसकी पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है.
पराली जलाना तात्कालिक रूप से भले ही सस्ता लगे, लेकिन लंबे समय में यह किसानों और देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महंगा सौदा है. पोषक तत्व जल जाने से किसान को रासायनिक उर्वरकों पर अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है, जिससे उसकी खेती की लागत बढ़ जाती है. पराली के धुएं से होने वाली बीमारियों के इलाज पर लोगों और सरकार का करोड़ों रुपया खर्च होता है, जो देश के विकास में लग सकता था. जिसे किसान कचरा समझकर जला रहा है, वह असल में 'काला सोना' है.
पराली का उपयोग बिजली बनाने, बायोगैस बनाने, कार्डबोर्ड बनाने, पशुओं का चारा तैयार करने और मशरूम की खेती जैसे कई कामों में हो सकता है, जिससे किसानों को अतिरिक्त आमदनी हो सकती है.
पराली जलाने का सबसे पहला असर हमारे पर्यावरण पर पड़ता है. जब खेतों में आग लगाई जाती है, तो इससे भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (N2O) जैसी खतरनाक ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं. ये गैसें वायुमंडल में जाकर ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाती हैं, जिससे मौसम का चक्र बिगड़ रहा है. इसके अलावा, इससे निकलने वाले बारीक कण हवा को जहरीला बना देते हैं. यह उत्तर भारत को एक गैस चैंबर में तब्दील कर देता है. आसमान में धुंध और स्मॉग की मोटी चादर छा जाती है, जिससे सूरज की रोशनी भी धरती तक ठीक से नहीं पहुंच पाती. यह वायु प्रदूषण सिर्फ इंसानों के लिए ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों के लिए भी घातक है.
पराली का धुआं हमारी सांसों में जहर घोलने का काम करता है. इसमें मौजूद हानिकारक कण और गैसें जब सांस के जरिए फेफड़ों में पहुंचती हैं, तो यह कई गंभीर बीमारियों को जन्म देती हैं. अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का कैंसर और हृदय रोग जैसी समस्याएं आम हो जाती हैं. बच्चों और बुजुर्गों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ता है, क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है. आंखों में जलन, गले में खराश, त्वचा की एलर्जी और सांस लेने में तकलीफ जैसी समस्याएं हर घर में दस्तक देने लगती हैं. एक अध्ययन के अनुसार, पराली जलाने के मौसम में अस्पतालों में सांस और हृदय संबंधी बीमारियों के मरीजों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हो जाती है.
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