दूसरे पशुओं के मुकाबले बकरियां हार्ड इम्यूनिटी वाली मानी जाती है. कहा जाता है कि गाय-भैंस को कोई भी बीमारी जल्दी लग जाती है, लेकिन बकरी जल्द बीमारी की चपेट में नहीं आती है. यही वजह है कि दूसरे कारणों के साथ-साथ इस बीमारी वाले कारण को बताते हुए लोगों को बकरी पालन करने की सलाह दी जाती है. बकरी पालन में बीमारियों का जोखिम बहुत कम बताया जाता है. गोट एक्सपर्ट की मानें तो बीमारियों के बचे हुए जोखिम को भी वक्त से वैक्सीनेशन करा कर खत्म और कंट्रोल किया जा सकता है. इतना ही नहीं बीमारी के लक्षणों की वक्त रहते पहचान कर तुरंत ही इलाज कराया जा सकता है.
इन्हीं सब उपायों को अपनाकर मृत्यु दर को कम किया जा सकता है. केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान (सीआईआरजी), मथुरा के मुताबिक खुरपका, बकरी की चेचक, बकरी की प्लेतग जैसी बीमारियों समेत पैरासाइट से बकरियों को बचाया जा सकता है. जरूरत बस वक्तक रहते अलर्ट होने की है. जरा सी भी लापरवाही होने पर एक बकरी में हुई बीमारी पूरे फार्म पर फैल सकती है.
खुरपका- 3 से 4 महीने की उम्र पर. बूस्ट र डोज पहले टीके के 3 से 4 हफ्ते बाद. 6 महीने बाद दोबारा.
बकरी चेचक- 3 से 5 महीने की उम्र पर. बूस्ट र डोज पहले टीके के एक महीने बाद. हर साल लगवाएं.
गलघोंटू- 3 महीने की उम्र पर पहला टीका. बूस्टूर डोज पहले टीके के 23 दिन या 30 दिन बाद.
पीपीआर (बकरी प्लेाग)- 3 महीने की उम्र पर. बूस्टकर की जरूरत नहीं है. 3 साल की उम्र पर दोबारा लगवा दें.
इन्टेररोटोक्सपमिया- 3 से 4 महीने की उम्र पर. बूस्टकर डोज पहले टीके के 3 से 4 हफ्ते बाद. हर साल एक महीने के अंतर पर दो बार.
कुकडिया रोग- दो से तीन महीने की उम्र पर दवा पिलाएं. 3 से 5 दिन तक पिलाएं. 6 महीने की उम्र पर दवा पिलाएं.
डिवार्मिंग- 3 महीने की उम्र में दवाई दें. बरसात शुरू होने और खत्मे होने पर दें. सभी पशुओं को एक साल दवा पिलाएं.
डिपिंग- दवाई सभी उम्र में दी जा सकती है. सर्दियों के शुरू में और आखिर में दें. सभी पशुओं को एक साल नहलाएं.
ब्रुसेल्लोलसिस- 6 महीने और 12 महीने की उम्र पर जांच कराएं. जो पशु संक्रमित हो चुका है उसे गहरे गड्डे में दफना दें.
जोहनीज (जेडी)- 6 महीने और 12 महीने की उम्र पर जांच कराएं. संक्रमित पशु को फौरन ही झुंड से अलग कर दें.
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