भारत की गलियों और मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्ते एक ऐसी सच्चाई हैं जिनसे हर भारतीय परिचित है. कई लोगों के लिए ये जानवर स्नेह का पात्र हो सकते हैं, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू बेहद भयावह और चिंताजनक है. आवारा कुत्तों के हमलों, उनसे फैलने वाली घातक बीमारी रेबीज और आम नागरिकों में बढ़ते डर ने आज एक राष्ट्रीय संकट का रूप ले लिया है. यह समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ रहा है ताकि नागरिकों की सुरक्षा और पशुओं के अधिकारों के बीच एक संतुलन स्थापित किया जा सके. यदि इस समस्या पर प्रभावी ढंग से लगाम नहीं लगाई गई, तो इसके परिणाम और भी खतरनाक होंगे.
आंकड़े इस संकट की जो तस्वीर पेश करते हैं, वह दिल दहला देने वाली है. विकिपीडिया और अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के अनुसार, भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा आवारा कुत्ते और बिल्लियां हैं. इसी का नतीजा है कि भारत में आवारा कुत्तों द्वारा किए जाने वाले हमलों की संख्या भी विश्व में सर्वाधिक है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया में रेबीज से होने वाली कुल मौतों में से 36 फीसदी अकेले भारत में होती हैं. यह एक चौंकाने वाला आंकड़ा है क्योंकि रेबीज एक वैक्सीन-रोकथाम योग्य बीमारी है. कुत्तों के काटने से होने वाले 99 फीसदी रेबीज संक्रमण इंसानों में फैलते हैं.
भारत में हर साल अनुमानित 18,000 से 20,000 लोग रेबीज के कारण अपनी जान गंवा देते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार, कुत्तों के काटने के वहीं 2024 में यह आंकड़ा 37.2 लाख रहा. महाराष्ट्र 13.5 लाख और तमिलनाडु 12.9 लाख) जैसे राज्य कुत्तों के काटने के मामलों में सबसे आगे हैं. साल 2019 के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 20.6 लाख और ओडिशा में 17.3 लाख आवारा कुत्तों की आबादी थी जहां संख्या सबसे ज्यादा पाई गई. यह सीधे तौर पर हमलों के बढ़ते जोखिम से जुड़ा हुआ है.
इस समस्या का सबसे दुखद पहलू यह है कि इसके सबसे आसान शिकार बच्चे और बुजुर्ग होते हैं. WHO की रिपोर्ट बताती है कि भारत में रेबीज के 30 फीसदी से 60 फीसदी मामले 15 साल से कम उम्र के बच्चों में होते हैं. बच्चे कुत्तों के साथ खेलते समय या अनजाने में उन्हें परेशान कर देते हैं, जिससे वे हमले का शिकार हो जाते हैं. कई बार बच्चे डर के मारे अपने माता-पिता को काटने की घटना के बारे में बताते भी नहीं हैं, और जानकारी के अभाव में समय पर इलाज नहीं मिल पाता, जो अंततः घातक साबित होता है. मासूम बच्चों को कुत्तों द्वारा नोंचकर मार डालने की खबरें अक्सर समाज को झकझोर देती हैं. लोगों में, खासकर महिलाओं और बच्चों में, सुबह-शाम घर से बाहर निकलने को लेकर एक स्थायी डर बैठ गया है.
यह संकट कई वजहों से गहराया है. इनमें प्रमुख हैं शहरों और कस्बों में आवारा कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करने के लिए पशु जन्म नियंत्रण यानी नसबंदी कार्यक्रम प्रभावी ढंग से लागू नहीं किए गए हैं. सड़कों पर फैला कचरा और फेंका हुआ भोजन इन कुत्तों के लिए प्रजनन और पनपने का एक बड़ा स्रोत है. कुत्तों के काटने के बाद तत्काल क्या करना चाहिए, और रेबीज का टीका कितना अहम है, इस बारे में लोगों में अभी भी बहुत कम जागरूकता है. एक तरफ पशु प्रेमी संगठन पशु क्रूरता निवारण अधिनियम का हवाला देकर कुत्तों के अधिकारों की बात करते हैं, तो दूसरी तरफ पीड़ित नागरिक अपने जीवन के अधिकार की मांग करते हैं.
इसी टकराव के कारण स्थानीय निकाय अक्सर कोई ठोस कदम उठाने से हिचकिचाते हैं. इन्हीं जटिलताओं के कारण यह मामला बार-बार सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. सुप्रीम कोर्ट इस दुविधा को समझता है और एक ऐसा रास्ता निकालने का प्रयास कर रहा है, जहां मानव जीवन की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए, लेकिन साथ ही पशुओं के प्रति क्रूरता भी न हो. सार्वजनिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए आवारा कुत्तों पर लगाम लगाना अनिवार्य है. इसका समाधान सिर्फ एक नहीं, बल्कि व्यापक नसबंदी, टीकाकरण, जिम्मेदार नागरिकता और जागरूकता अभियानों जैसे कई उपायों के समन्वित प्रयास में निहित है. यह सबसे वैज्ञानिक और मानवीय रास्ता है.
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today