सिर्फ गर्मियां ही नहीं, अब तो सालभर हरे चारे की कमी होने लगी है. कमी के साथ ही हरे चारे के दाम भी बढ़ गए हैं. भेड़-बकरी का हो या गाय-भैंस सभी को दिनभर जरूरत के मुताबिक हरा चारा चाहिए होता है. और अब जब हरे चारे की किल्लत होने लगी है तो उसका सीधा असर डेयरी प्रोडक्ट के रेट समेत दूध उत्पादन पर भी दिखाई देने लगा है. दूध और दूध से बने प्रोडक्ट हर रोज महंगे होते जा रहे हैं. पशुपालकों की इसी परेशानी को दूर करने के लिए भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान (IGFRI), झांसी ने इसके लिए एक बहुत अच्छा प्लान तैयार किया है.
संस्थान की तकनीक के मुताबिक अब फलों और फूलों के बाग और चारागाह में भी पशुओं के लिए चारा उगाया जा सकता है. इसके लिए किसी अतिरिक्त जमीन की जरूरत नहीं पड़ेगी. हालांकि कुछ का कहना है कि इस परेशानी का हल साइलेज-हे (चारे का अचार) है, लेकिन साइलेज बनाने के लिए भी भरपूर मात्रा में हरा चारा चाहिए.
खासतौर पर अगर यूपी की बात करें तो यहां की बंजर भूमि पर खेती मिट्टी और नमी की कमी के चलते मुश्किल है. लेकिन वैकल्पिक भूमि उपयोग (ALU) प्रणाली के चलते चारा उगाया जा सकता है. जैसे सिल्वी-चारागाह (पेड़+चारागाह), हॉर्टी-चारागाह (फलदार पेड़+चारागाह) और कृषि-बागवानी-सिल्वी चारागाह (फसल+फलदार पेड़+MPTS + चारागाह). ALU प्रणाली से उगने वाली कई बहुउद्देशीय पेड़ों की प्रजातियां (MPTS) या झाड़ियां लकड़ी के अलावा पशुओं के चारे के लिए इस्तेमाल होने वाले पत्तेदार चारे के रूप में बहुत उपयोगी हैं. ये गतिविधियां घरेलू पशुधन उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं, जो बदले में दूध और मीट उत्पादन को बढ़ाती हैं. MPTS पेड़ों के साथ चरने वाले पशुओं को न केवल पौष्टिक चारा मिलता है बल्कि चमकदार और गर्म धूप वाले दिनों में जानवरों को आराम करने की जगह भी मिलती है.
उत्तर प्रदेश में कृषि वानिकी में उगाई जाने वाली पेड़ों की प्रजातियों का इस्तेमाल खासतौर पर छोटे जुगाली करने वाले पशुओं और बड़े जुगाली करने वाले पशुओं के चारे के रूप में हो रहा है. मौजूदा बागों में चारा फसलों को शुरू करने के लिए कई अवसर हैं. बागवानी प्रणाली चारागाह (घास और फलियां) फलों के पेड़ों को एकीकृत करती हैं ताकि छोटे रूप में बंटी जमीन का इस्तेमाल करके फल, चारा और ईंधन की लकड़ी की मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर को पूरा किया जा सके. ज्यादा चारा उत्पादन के लिए आंवला और अमरूद आधारित बागवानी प्रणाली विकसित की गई है. इस प्रणाली में आजमाई गई घासों में सेंचरस सिलिएरिस, स्टाइलोसेंथेस सीब्राना और स्टाइलोसेंथेस हैमाटा शामिल हैं.
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