हमारे देश में घरों से निकले कचरे से कई तरह के प्रोडेक्ट बनने लगे हैं, लेकिन कभी आपने सुना है मुर्गे और मुर्गियों के पंख के अवशेषों से भी बेहद ही मुलायम फैब्रिक तैयार हो रहा हो. यही नहीं चाहे कोई शाकाहारी हो या फिर मांसाहारी, मुर्गे के अवशेष को छूना तो दूर उसको देखना तक पसंद नहीं करते, लेकिन अब उसी से बने कपड़े और कई तरह के अनगिनत प्रोडेक्ट उपयोग में ले रहे हैं. इसे ना सिर्फ बुचर वेस्ट से निजात मिल रही है, बल्कि आदिवासी महिलाओं को रोजगार और हजारों पेड़ों को कटने से भी बचाने की दिशा में एक बड़ी पहल माना जा रहा है.
जयपुर के राधेश अग्रहरी को भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान में रिसर्च के दौरान कचरे से नया सामान बनाने का प्रोजेक्ट दिया गया, लेकिन लंबी रिसर्च के बाद इसी प्रोजेक्ट को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. फिर उन्होंने चिकन वेस्ट पर काम शुरू किया और कई सालों की रिसर्च के बाद चिकन फाइबर की सफाई कर उससे कपड़ा और पेपर बनाने की शुरुआत की. इसके लिए राधेश ने पुणे में कूड़ा उठाने वालों को ट्रेनिंग दी और फिर मुर्गे और मुर्गियों के पंख इकट्ठा कर अपने स्टार्टअप की शुरुआत की.
राधेश ने बाद में राजस्थान में सफाई प्लांट से लेकर बुनकरों की तलाश के लिए आदिवासी इलाके को चुना, जहां ख़ासकर महिलाओं को प्रोडेक्ट के बारे में ट्रेनिंग देकर आज मुर्गे के पंखे से बैग, पर्स, शर्ट, कंबल, पेंसिल, कॉपी जैसे अनगिनत सामग्री तैयार कर रहे है. 1 किलो चिकन में 350 ग्राम वेस्ट निकलता है.
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इसके लिए सबसे पहले चिकन वेस्ट कचरे को सेनीटाइज करके छूने लायक बनाया जाता है और फिर 1 किलो पेपर के लिए 1 किलो मुर्गे के पंख और सिर्फ 3 लीटर खारे पानी की आवश्यकता पड़ती है, जबकि बाकी दूसरे 1 किलो पेपर बनाने के लिए 3 किलो लकड़ी और 200 लीटर जमीनी पानी उपयोग में लिया जाता है. उनका दावा है कि चिकन फाइबर साफ कर कपड़ा और पेपर बनाने से हजारों पेड़ों को उन्होंने कटने से बचाया है और सैकड़ों लोगों को रोजगार भी मिला है.
को-फाउंडर मुस्कान सैनिक ने बताया कि इसके लिए सबसे पहले 150 कूड़ा उठाने वाले लोगों को उन्होंने ट्रेनिंग दी है, जो मुर्गे और मुर्गियों के कूड़े को प्रोसेसिंग यूनिट पर लेकर आते है, जहां कूड़े में से पंखो को इकट्ठा कर उनकी सफाई करते है और उसके बाद उन्ही मुर्गे के पंखो को भाप और 27 तरीकों से सेनीटाइज कर 1200 से ज्यादा आदवासी महिलाओं को उनके घरों पर साफ पंख देते है. बाद में पंखो को एक-एक कर बुना जाता है और बाद में धागे से कपड़ा बनाकर 37 से ज्यादा प्रोडेक्ट डिजाइन बनाए जाते है, जिसमें एसेसरीज, बैगस, टेक्सटाइल भी शामिल है. सबसे खास बात यह है कि इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह के केमिकल यूज नहीं होता. साथ ही जो दूसरे सामान्य प्रोडक्ट के मुकाबले बेहद किफायती भी है.
हालांकि, चिकन बुचरी वेस्ट पर काम करना भी आसान नहीं था और इसमें उन्हें कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा. इसको लेकर राधेश ने बताया कि शाकाहारी परिवार से होने के चलते चिकन वेस्ट से काम करना बेहद मुश्किल था. शुरूआत में 15 हजार रुपये में स्टार्टअप शुरू किया तब परिवार वालों ने भी खूब विरोध किया, लेकिन आज करोड़ों के टर्नओवर के साथ ग्लोबल वार्मिंग के लिए काम करने पर सभी खुश है. फिलहाल बड़ी-बड़ी कंपनियों के जरिए इनकी सोच कई देशों तक पहुंच चुकी है. इस अनूठी पहल के लिए उन्हें 25 से ज्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार में मिल चुके हैं, लेकिन उनका मानना है कि अगर सरकार इस दिशा में कदम उठाए तो बुचर वेस्ट से निपटने का यह अच्छा मौका है.