पूर्वोत्तर भारत में बागवानी और औषधीय फसलों के विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. जिसके लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर बाजार उपलब्ध हैं. यह क्षेत्र जैविक खेती के हब के रूप में विकसित होकर उभर रहा है. अनानास, संतरा, कीवी, हल्दी, अदरक, इलायची आदि फसलें यहां लोकप्रियता हासिल कर रही हैं. उन्हें अब वैश्विक स्तर पर ले जाने की आवश्यकता है. जिसके लिए प्रयास शुरू किए गए हैं. पूर्वोत्तर भारत में असम, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और सिक्किम शामिल हैं. इस क्षेत्र में एकमात्र केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय है जो इंफाल में स्थित है. इस पर क्षेत्र में कृषि विकास और किसानों को आगे बढ़ाने का बड़ा जिम्मा है.
हमने इसके कुलपति डॉ. अनुपम मिश्रा से दिल्ली स्थित नेशनल एग्रीकल्चरल साइंस कांप्लेक्स में उनसे बातचीत की. डॉ. मिश्रा इससे पहले एग्रीकल्चरल टेक्नोलॉजी अप्लीकेशन इंस्टीट्यूट (अटारी) जबलपुर के निदेशक रह चुके हैं. उन्होंने पूर्वोत्तर में कृषि से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर हमसे बातचीत की. प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश.
सवाल: पूर्वोत्तर राज्यों में किसानों की सबसे बड़ी समस्या क्या है. क्या यहां किसानों तक केंद्रीय योजनाओं का लाभ पहुंचाने में कोई दिक्कत आ रही है?
डॉ. मिश्रा: पूर्वोत्तर राज्यों के किसानों को कई मामलों में वरीयता मिलती है. लेकिन इनमें एक बड़ी पुरानी समस्या चलती आ रही है. अगर उसका समाधान कर दिया जाए तो केंद्र की कृषि योजनाओं से ज्यादा किसान लाभान्वित होंगे. हम लोगों के क्षेत्र में सरपंच की तरह यहां एक व्यवस्था है विलेज हेड की. जिसके पास कम्युनिटी जमीन बहुत होती है. यह लोगों को खेती करने के लिए पट्टे पर जमीन देता है लेकिन उनके नाम नहीं करता. वहां काफी लोग ऐसे हैं जो कम्युनिटी लैंड पर खेती कर रहे हैं लेकिन उसका मालिकाना हक उनके पास नहीं है. जिसकी वजह से उन्हें योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता. क्योंकि योजनाओं में तो एक शर्त यह रहती ही है कि लाभ लेने के लिए जमीन का होना जरूरी है.
इसलिए मेरा सुझाव यह है कि या तो किसानों के नाम पर जमीन होने का प्रावधान हो या फिर केंद्र की योजनाओं में पूर्वोत्तर राज्यों के किसानों के लिए स्पेशल प्रावधान हो. जिसमें खेती करना जरूरी हो, लेकिन लैंड रिकॉर्ड में नाम होने की शर्त को हटा दिया जाए. इसके वेरिफिकेशन का एक तंत्र बन जाए. इससे असल में खेती करने वाले काफी किसानों को लाभ मिल जाएगा. वरना लैंड रिकॉर्ड के अभाव में काफी लोग योजनाओं के लाभ से वंचित रहेंगे. इस मुद्दे पर काफी चर्चा हुई है लेकिन अब तक समाधान नहीं निकला.
सवाल: अब भी तो केंद्र सरकार अन्य राज्यों के मुकाबले पूर्वोत्तर के किसानों को स्पेशल ट्रीटमेंट देती है?
डॉ. मिश्रा: यह बात बिल्कुल सच है कि केंद्र सरकार पूर्वोत्तर के विकास को लेकर काफी जोर दे रही है. तमाम कृषि योजनाओं में यहां के किसानों को ज्यादा छूट और सब्सिडी मिल रही है. अगर अन्य राज्यों के किसानों को 50 फीसदी सब्सिडी मिलती है तो वह पूर्वोत्तर के लिए 90 फीसदी तक हो जाती है. जैसे पूर्वोत्तर में एफपीओ बनाने के लिए सिर्फ 100 सदस्य चाहिए लेकिन अन्य राज्यों के लिए 300 लोगों की जरूरत पड़ती है. इसी तरह वहां जमीन की ऑनरशिप को लेकर जो समस्या है उसके समाधान के लिए स्पेशल प्रावधान करना चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा किसानों तक केंद्र की योजनाओं का लाभ पहुंचे.
सवाल: अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों के किसान गेहूं-धान की बजाय महंगी फसलें उगाते हैं. वहां से एक्सपोर्ट की कितनी संभावना है?
डॉ. मिश्रा: पूर्वोत्तर राज्यों की कृषि उपज को बेचने के लिए दिल्ली-मुंबई ले जाना बहुत महंगा है. जबकि साउथ ईस्ट एशिया के देशों जैसे थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया और कंबोडिया में ले जाना सस्ता पड़ेगा. इसलिए पूर्वोत्तर से इन देशों में कृषि उपज एक्सपोर्ट करने के लिए यहां पर हब बनना चाहिए. इससे पूर्वोत्तर राज्यों की तस्वीर बदल जाएगी. गुवाहाटी से थाईलैंड तक रोड बन रहा है. इसका सिर्फ 20 फीसदी काम बाकी है. इन देशों की इकोलॉजिकल, कल्चरल और फूड हैबिट पूर्वोत्तर के समान ही है. इसलिए यहां से एक अच्छी व्यापारिक व्यवस्था बन सकती है. एक्सपोर्ट बढ़ेगा तो यहां के किसान और समृद्ध हो जाएंगे. अब भी अन्य राज्यों के मुकाबले यहां के किसानों की आय अच्छी है.
सवाल: अभी सरकार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के सभी 111 शोध संस्थानों को पूर्वोत्तर में प्रोजेक्ट करने के लिए पैसा देती है. लेकिन देखने में आया है कि इन संस्थानों के लोग सिर्फ फंड खर्च करने के लिए रस्म अदायगी सी करते हैं. उनका पूर्वोत्तर से कोई लगाव नहीं बन पाता. आपका क्या नजरिया है?
डॉ. मिश्रा: यह बात काफी हद तक सही है कि लोग सिर्फ नाम के लिए प्रोजेक्ट करने जा रहे हैं. उनका लगाव नहीं बन पाता. अब महाराष्ट्र में कृषि का कोई शोध संस्थान है और उसे पूर्वोत्तर में भी काम करना है तो उसके लोग पूर्वोत्तर में आकर कितने दिल से काम कर पाएंगे? वो तो सिर्फ रस्म अदायगी ही करेंगे. इसलिए पैसे का सदुपयोग हो और उसका असर दिखे इसके लिए जरूरी है कि पूर्वोत्तर में कृषि विकास के लिए दिया जाने वाला फंड वहीं के संस्थानों को मिले. इससे प्रभावी काम हो पाएगा.
अभी आईसीएआर के हर संस्थान को पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि विकास का भी जिम्मा है. यह व्यवस्था प्रभावी नहीं है. पूर्वोत्तर राज्यों में पहले से ही आईसीएआर के कई संस्थान और क्षेत्रीय केंद्रों के साथ एक केंद्रीय विश्वविद्यालय भी है. इसलिए आईसीएआर के अलग-अलग संस्थानों को पूर्वोत्तर के लिए मिलने वाली रकम वहीं के संस्थानों और विश्वविद्यालय को दी जानी चाहिए. इससे अच्छा काम होगा. इससे वैज्ञानिक अपने क्षेत्र की समस्याओं पर काम कर सकेंगे.
सवाल: पूर्वोत्तर राज्यों के किसान किन फसलों पर जोर दे रहे हैं?
डॉ. मिश्रा: यहां के अधिकांश राज्यों में ऑर्गेनिक खेती पर जोर दिया जा रहा है. जलवायु ऐसी है कि कॅमर्शियल क्रॉप पर काम करने की बहुत संभावना है. यहां के किसान कीवी, पाइनेपल, हल्दी, अदरक, मिर्च, ड्रैगन फ्रूट, ऑरेंज और मेडिसिनल प्लांट की खेती पर काफी जोर दे रहे हैं. इसमें कमाई अच्छी है. इन पर विश्वविद्यालय, रिसर्च सेंटर और केवीके आदि लगातार काम कर रहे हैं. इन कृषि उत्पादों के एक्सपोर्ट की बहुत संभावना है.
सवाल: आप कई संस्थानों में काम कर चुके हैं. कृषि क्षेत्र में अगर एक बड़ा बदलाव करना हो तो आपकी नजर में वो क्या होना चाहिए?
डॉ. मिश्रा: भारत के लिए कृषि बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए इसके विकास के लिए समय-समय पर बदलाव होते रहने चाहिए. लेकिन एक बदलाव जो मैं अभी चाहता हूं वो है फसल बीमा से संबंधित. यह बदलाव हो जाए तो किसानों और सरकार दोनों को राहत मिलेगी. ऐसा प्रावधान होना चाहिए कि बीज का ही इंश्योरेंस हुआ हो पहले से. यदि कोई किसान धान का बीज खरीदता हो उसके साथ इंश्योरेंस हो. एक किलो पर दस-बीस रुपये लगे और फसल कटने तक वो वैलिड हो. इससे हर किसान सुरक्षित रहेगा और सरकार पर बोझ भी नहीं पड़ेगा.
बीज बनाने वाली कंपनियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए. जब हम ओला, उबर की सवारी करते हैं तो उसका भी इंश्योरेंस होता है. हवाई जहाज में जाते हैं वहां भी इंश्योरेंस है. मोबाइल का भी इंश्योरेंस हैं, फिर बीज का क्यों नहीं. यह इंश्योरेंस सीड कंपनी करवाए. सीड खरीदते समय उसकी लिखत-पढ़त हो. इससे नकली बीजों की समस्या भी खत्म हो जाएगी. ऐसा करने से न तो कंपनी को पता चलेगा और न किसानों को, लेकिन फायदा बड़ा होगा.
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