गन्ना यानी मिठास.मगर गन्ने से जुड़ी जो कहानी आप आगे पढ़ेंगे उसे पढ़ते हुए कई बार आपका मुंह कड़वा होगा. आपसे गुजारिश रहेगी कि कड़वाहट के ख्याल से पढ़ना मत छोड़िएगा. पढ़ते हुए आपका सिर्फ दिलो-दिमाग मायूस हो सकता है लेकिन जिनकी ये कहानी है उनकी जिंदगी में मायूसी छा चुकी है. ये वो औरते हैं जो गन्ना कटाई का काम करती हैं, लेकिन ये काम एक वक्त के बाद उन्हें ऐसे मुकाम पर पहुंचा देता है कि उन्हें अपनी बच्चेदानी तक निकलवाने को मजबूर होना पड़ता है. ये कहानी सामने आई जब मैं महाराष्ट्र के बीड जिले पहुंची.
बीड जिले के बारे में पढ़ना शुरू किया तो मालूम चला कि मोहम्मद बिन तुगलक ने यहां एक किला और हजारों कुएं बनाने के बाद इस जगह का ये नाम रखा था. अरबी में बीड का मतलब होता है कुआं. इस जगह का नाम तो अब भी बीड ही है लेकिन नाम का मतलब यानी कुएं कहीं खो गए हैं. दूर तक सूखा ही सूखा दिखता है सब कुछ और पानी की कितनी किल्लत है .... ये कोई यहां उन किसानों से पूछे जो जमीन होने के बाद भी उस पर खेती नहीं कर पाते और काम की तलाश में हर साल अपना घर छोड़कर दूसरों के खेतों में मजदूरी करने जाते हैं...उन्हीं मजदूरी करने वाले लोगों में शामिल हैं ये औरतें जिन्होंने जब अपनी कहानी बताई तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए.
बीड जिले का एक गांव है सिंघी. यहां मिलीं पद्मिनी रमेश. उन्होंने बताया, ' 12 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई थी उसके एक साल बाद एक लड़का हो गया.इसके डेढ़ साल बाद एक और बेटा हो गया और डेढ़ साल बाद एक और. 17 साल की उम्र तक मेरे तीन बच्चे हो गए थे. फिर एक साल घर पर रुकी. 18 साल की हुई तो फिर गन्ना कटाई के लिए कर्नाटक गई. वहां काम करने में तकलीफ शुरू हो गई.वजन उठाने से दिक्कत हुई.पेट में दर्द हुआ.तब वहां डॉक्टर को दिखाया तो बोला कि यूट्रस निकलवाना पड़ेगा.लेकिन हमारे पास 15 हज़ार नहीं थे. फिर मैंने 6 महीने गन्ना तोड़ के पैसे जमा किए . उसके बाद 18 साल की ही थी मैं जब मेरा गर्भाश्य निकलवाना पड़ा. उसके बाद से तबियत ठीक नहीं रहती. अभी भी शरीर में, हाथ पैर और कमर में दर्द रहता है.'
बात करते हुए ऐसा लगा कि पद्मिनी की कहानी जितनी पुरानी है उनके जख्म उतने ही नए. हर दिन ही कम उम्र में गर्भाश्य निकलवाने का कोई ना कोई साइडइफेक्ट सामने आता रहता है. कहती हैं, 'गन्ना कटाई में काम करने की वजह से 5 नहीं 15 दिन तक खून बहता रहता था.किसी भी डॉक्टर को दिखाओ तो वो यही कहता कि गर्भाश्य ही निकलवाना पड़ेगा. हमें ही मालूम है कि हमारा दर्द क्या होता है. पूरे शरीर में दर्द होता है. जिसको यूट्रस निकलवाना पड़े उसे ही पता है कि ये कितना दर्द भरा होता है. डॉक्टर लोग कभी कभी पैसे खाने के लिए भी ऐसा बोलते हैं यही सोचकर शुरू में निकलवाया नहीं, फिर जब बहुत दर्द होने लगा तब ये लगा कि निकलवाना ही पड़ेगाकैसे भी करें जीना तो पड़ेगा, डॉक्टर को बताया भी कि निकलवाने के बाद औऱ भी दर्द होने लगा है मगर कुछ नहीं हुआ... नसीब में ही दर्द लिखा हो तो क्या कर सकते हैं'
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पद्मिनी को अब थोड़ा भी काम करने पर पसीने आ जाते हैं. आंखों की रोशनी भी कम हो रही बताती हैं. उनसे बात करते हुए उनकी पड़ोसन मेरे लिए नींबू पानी लेकर आई मगर पद्मिनी ने नींबू पानी नहीं पिया. उन्होंने कहा मुझे सूट नहीं करता. खाना भी अब सोच-समझकर ही खाती हूं. कब कहां दर्द हो जाए यही डर लगता रहता है.
इस बारे में और ज्यादा समझने के लिए मैंने डॉक्टर से भी बात की. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की पूर्व सचिव डॉ. संगीता शर्मा ने बताया, 'अगर किसी भी महिला को बहुत ज्यादा ब्लीडिंग है तो सबसे पहले उसे हार्मोंनल ट्रीटमेंट देकर उसे ठीक करने की कोशिश की जाती है. अगर ये ट्रीटमेंट फेल हो जाते हैं या अगर ब्लीडिंग बहुत ही ज्यादा है और तकलीफदेय है तभी गर्भाश्य निकालने के बारे में सोचा जा सकता है. खासकर कोई युवा लड़की को इस तरह की तकलीफ है तो एहतियात बरतने की जरूरत होती है. क्योंकि किसी भी लड़की का काम उम्र में यूट्रस निकाल लिया जाएगा तो वो अपनी फैमिली नहीं बना पाएगी. दूसरा ये कि अगर फैमिली पूरी हो भी गई है तो 18 या 25 साल की उम्र में गर्भाश्य निकालना उसे अर्ली मेनोपॉज की तरफ ले जाएगा जिससे शरीर में और तकलीफें शुरू हो जाएंगी.'
डॉ. संगीता ने जिन तकलीफों की तरफ इशारा किया वो तकलीफें पद्मिनी रमेश के साथ होती दिख रही थीं. बातचीत में उन्होंने यहां तक बताया कि पति की मदद मिल जाती है तो घर का काम कर लेती हैं वरना अपने हाथों से कंघी करना भी मुश्किल है. बोली, 'अब तीनों बच्चों को गन्नाकटाई में नहीं लगाया है वो पुणे नौकरी करते हैं. कोई 6-7 हजार कमा लेता है कोई 5 हजार. मगर मैं अब ठीक से कोई काम नहीं कर पाती हूं'
इन हालातों को बीते करीब 20 सालों से देख रहीं सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी बोरा कहती हैं, 'हमने यहां महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए काफी काम किया है, लेकिन बीड की पहचान ही बन गया है माइग्रेशन. यहां बीते 2-3 दशक से परिवारों में यही परंपरा चल रही है. जमीन है लेकिन पानी की कमी की वजह से लोग खेती नहीं कर पाते इसलिए अपना घर बार छोड़कर हर साल सितंबर-अक्टूबर में पश्चिम महाराष्ट्र चले जाते हैं और 4-6 महीने वहीं रहकर मार्च-अप्रैल में वापस आते हैं. महिलाओं का काम गन्ना कटाई के दौरान गन्ने के गट्ठर को उठाना, साफ करना और एक जगह से दूसरी जगह ले जाना होता है. जब पीरियड्स होते हैं तब इतना वजन उठाने से उन्हें ज्यादा ब्लीडिंग होती है. पेट दर्द होता है. मगर उन्हें काम से छुट्टी नहीं मिल पाती. छुट्टी लें तो फिर मजदूरी का नुकसान होता है. ऐसी समस्या जब डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं तो वो कहता है कि कैंसर हो जाएगा या आगे चलकर समस्या हो जाएगी और इसका उपाय ये है कि गर्भाश्य निकलवा लिया जाए. बस इसी सोच के साथ कि मजदूरी पूरी मिले, छुट्टी ना करनी पड़े ये औरतें 18 से 25 साल की उम्र में ही अपना गर्भाश्य निकलवा लेती हैं और फिर ऐसी समस्याओं का शिकार हो जाती हैं जिससे गन्ना कटाई का काम तो दूर अपने ही घर के काम भी ठीक से नहीं कर पाती हैं. '
अप्रैल खत्म होने को है. गन्ना कटाई का काम भी इसी के साथ खत्म हो गया है. मगर गन्ना कटाई करने वाली औरतों की इस कहानी को हैप्पी एंडिंग मिलना अभी बाकी है...