देश को आज़ादी मिलने के कई दशकों बाद भी किसानों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. महाराष्ट्र में खरीफ सीज़न शुरू होने से पहले ही आत्महत्याओं का सिलसिला तेज़ हो गया है. बीते तीन महीनों में राज्य में 767 किसानों ने मौत को गले लगा लिया, जो कि बेहद चौंकाने वाला आंकड़ा है. इनमें सबसे ज्यादा घटनाएं अमरावती संभाग से दर्ज हुई हैं. बारिश का असमय होना, फसलों की लगातार घटती उपज, बढ़ता कर्ज और इलाज जैसे खर्चों ने किसानों की कमर तोड़ दी है.
17 जून को अकोला जिले के नीमकरदा गांव के 58 वर्षीय किसान देवानंद इंगले ने अपने खेत में पेड़ से फांसी लगाकर आत्महत्या की थी. देवानंद इंगले की पत्नी कैंसर से पीड़ित थीं. इलाज पर भारी खर्च हुआ, जबकि घर में केवल डेढ़ एकड़ जमीन ही आय का स्रोत थी. फसल साल दर साल दम तोड़ रही थी. ऊपर से बचत कम और बैंक का 15,000 रुपये का कर्ज और साहूकारों और रिश्तेदारों से लिए गए लगभग 20,000 रुपये का कर्ज. इन्हीं सबके बोझ तले दबकर देवानंद ने खुद की जान ले ली.
घर में अब उनके बेटे विक्की इंगले और बहू रह गए हैं. विक्की का कहना है, “डेढ़ एकड़ खेत से घर जैसे-तैसे चलता था. बाकी खर्चों के लिए दूसरे के खेतों में मजदूरी करनी पड़ती थी, लेकिन दवाइयों का खर्च, घर चलाना और बार-बार बैंक वसूली का दबाव, ये सब बर्दाश्त से बाहर हो गया था. साहूकार भी तगादा करते थे. इन सबके चलते पापा ने ये कदम उठाया. सरकार हमारी तरफ देखती ही नहीं.”
ऐसी ही एक और दिल दहला देने वाली घटना इसी क्षेत्र के टाकली गांव में फरवरी 2021 में हुई थी, जब किसान संजय वानखेडे ने कर्ज के बोझ से परेशान होकर खेत में फांसी लगा ली थी. संजय पर 80 हजार से अधिक का कर्ज था. सरकार ने परिवार को 1 लाख रुपये की मदद ज़रूर दी, लेकिन पत्नी माया वानखेडे का कहना है, “सरकार बार-बार कर्जमाफी की घोषणाएं करती है, लेकिन हकीकत में कुछ नहीं करती. किसान आत्महत्या से पहले अपनी समस्याएं बार-बार बताते हैं, लेकिन तब सरकार ध्यान नहीं देती. मरने के बाद 1 लाख रुपये देती है – उससे क्या होगा? पति चला गया, बेटे के सिर से पिता का साया उठ गया. फिर करोड़ों भी मिलें तो क्या फ़ायदा?” मृतक किसान के बेटे समर ने भावुक होते हुए कहा कि पापा होते तो मुझे घुमाने ले जाते, चॉकलेट लाते, उनकी बहुत याद आती है.
स्थानीय बुजुर्ग किसानों का कहना है कि सरकार और मौसम- दोनों ही धोखा देते हैं. बारिश कभी आती ही नहीं और अगर आती है तो इतनी ज़ोर की आती है कि फसल को बहाकर ले जाती है. कई बार तो फसल खेत में ही सूख जाती है. ऐसे में लागत भी नहीं निकलती और जब फसल बाजार पहुंचती है, तब उसे कोई दम नहीं मिलता. सरकारी नीतियां और राजनीतिक उपेक्षा- दोनों ही इसके लिए ज़िम्मेदार हैं. अगर सरकार और प्रशासन समय रहते किसानों की समस्याओं पर ध्यान दें, तो शायद कोई भी किसान आत्महत्या जैसा भयानक कदम न उठाए.