कौन हैं अमृता देवी जिनके नाम से जाना जाएगा राजस्थान का जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड

कौन हैं अमृता देवी जिनके नाम से जाना जाएगा राजस्थान का जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड

अमृता देवी ने पेड़ों को काटने का विरोध किया, लेकिन सैनिकों ने कुछ नहीं सुना. अमृता देवी ने तब कहा कि ‘सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण’ यानी अगर जान के बदले एक पेड़ भी बचता है तो यह सही है. कुल 49 गांव में अमृता देवी के इस अभियान से बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों से लिपट गए. अहंकार में अंधे सैनिकों ने लोगों के साथ-साथ पेड़ों पर आरी चला दीं.

अमृता देवी के नाम से होगा जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड का नाम. GFX- Sandeep Bhardwajअमृता देवी के नाम से होगा जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड का नाम. GFX- Sandeep Bhardwaj
माधव शर्मा
  • Jaipur,
  • Aug 29, 2023,
  • Updated Aug 29, 2023, 2:58 PM IST

राजस्थान में पर्यावरण संरक्षण के लिए इतिहास में अमर नाम अमृता देवी के नाम पर राज्य जीव-जंतु कल्याण बोर्ड का नाम रखा जाएगा. यह निर्णय राज्य वन्यजीव मंडल की 14वीं बैठक में लिया गया है. मुख्यमंत्री इस मीटिंग में शामिल होते हैं. सीएम ने कहा कि राज्य जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड को अब अमृता देवी के नाम से पहचाना जाएगा. क्योंकि अमृता देवी का बलिदान सभी को पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा देता है. बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि राजस्थान में शेरों को लाने के लिए केन्द्र सरकार को चिट्ठी लिखी जाएगी.
इस रिपोर्ट में हम जानेंगे कि पर्यावरण संरक्षण के लिए इतिहास में दर्ज अमृता देवी कौन हैं और इन्होंने ऐसा क्या किया कि 18वीं सदी की ये महिला आज भी एक प्रेरणा हैं? 

खेजड़ी बचाने के लिए दे दी 363 लोगों ने जान

खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष है. यह खिताब इसे साल 1983 में मिला. साल था 1730 और महीना भादों का था. आज के जोधपुर जिले के गांव खेजड़ली में अमृता देवी अपनी तीन बेटियों आसू, भागू और रत्नी के साथ घर पर ही थीं. उन्हें पता चला कि जोधपुर के राजा अभय सिंह की पलटन के कुछ लोग खेजड़ी के पेड़ काटने के लिए आए हैं.

बताते हैं कि इन लकड़ियों को जलाकर चूना बनाया जाता और चूने से राजा के नए महल की ऊंची दीवारें. चूंकि खेजड़ी की लकड़ी बहुत देर तक जलती है इसलिए राजा ने अपने सैनिकों को खेजड़ी की लकड़ी लाने के लिए भेजा था. 

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उस वक्त ये पूरा क्षेत्र गुरू जांभोजी के प्रभाव में था. उन्होंने जीने के लिए कुल 29 नियम बनाए थे. इनमें से प्रकृति संरक्षण भी मुख्य था. इन नियमों को मानने वाला समुदाय आज का बिश्नोई समाज है. इन्हीं मान्यताओं के चलते अमृता देवी ने पेड़ों को काटने का विरोध किया, लेकिन सैनिकों ने कुछ नहीं सुना. अमृता देवी ने तब कहा कि ‘सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण’ यानी अगर जान के बदले एक पेड़ भी बचता है तो यह सही है.

अमृता देवी अपने बेटियों के साथ खेजड़ी के पेड़ों से लिपट गईं और बलिदान दिया. GFX- Sandeep Bhardwaj

कुल 49 गांव में अमृता देवी के इस अभियान से बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों से लिपट गए. अहंकार में अंधे सैनिकों ने लोगों के साथ-साथ पेड़ों पर आरी चला दीं. कई जानें चली गईं, लेकिन सैनिकों पर कोई असर नहीं हुआ. 83 गांवों के बिश्नोई खेजड़ली गांव में जमा हो गए.

पंचायत में उन्होंने तय किया कि पेड़ों को बचाने के लिए हर एक बिश्नोई अपना जीवन त्याग देगा. इतिहास बताता है कि इस आंदोलन में 49 गांवों के 363 बिश्नोई शहीद हो गए. आज भी हर साल सितंबर महीने में खेजड़ली गांव में हजारों बिश्नोई अपनों की याद में इकठ्ठे होते हैं.

बाद में राजा अभय सिंह को इस हादसे का पता चलने पर उन्होंने समाज से माफी भी मांगी. बिश्नोई गांवों के भीतर और आसपास उसने पेड़ों को काटने और जानवरों के शिकार पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया और इस संबंध में एक ताम्रपत्र भी जारी किया. बिश्नोई समाज में पर्यावरण संरक्षण की यह मान्यता आज भी जारी है. 

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इसीलिए दिया जाता है अमृता देवी पुरस्कार

अठाहरवीं शताब्दी में अमृता देवी की उस साहसिक फैसले ने बाद में देश के कई पर्यावरण आंदोलनों को राह दिखाई. राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकारों ने वन्यजीवों और पर्यावरण संरक्षण के लिए राज्य स्तरीय अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार शुरू किया. बाद में 2013 में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने अमृता देवी बिश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार की भी शुरुआत की. यह पुरस्कार वन्यजीव संरक्षण के लिए व्यक्ति या किसी संस्थान को दिया जाता है. 

उत्तराखंड के चमोली का चिपको आंदोलन इसी से प्रभावित

इस नरसंहार के 243 साल बाद 1973 में आज के उत्तराखंड और तत्कालीन उत्तर प्रदेश में चिपको आंदोलन हुआ. चिपको आंदोलन का मूल बिश्नोइयों के चिपको आंदोलन से ही लिया गया था. इस आंदोलन के बाद देश में पर्यावरण मंत्रालय बनाया गया. 


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