Tariff War: कामयाब नहीं होगी भारतीय कृषि को कमजोर करने की चाल, ट्रंप के टैरिफ वार का ऐसे जवाब देगा भारत

Tariff War: कामयाब नहीं होगी भारतीय कृषि को कमजोर करने की चाल, ट्रंप के टैरिफ वार का ऐसे जवाब देगा भारत

Tariff War: टैरिफ वार, जिसे ट्रंप कूटनीतिक टेबल पर सौदेबाजी के हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं, अमेरिकी किसानों को बचाने और भारतीय कृषि को कमजोर करने की चाल है. सोयाबीन, चना, मक्का, और अन्य फसलों पर आयात शुल्क और गैर-शुल्क बाधाएं, दरअसल हमारे किसान के लिए वही भूमिका निभा रही हैं, जो नील खेती की जबरन व्यवस्था ने बिहार के किसानों के लिए निभाई थी.

Binod AnandBinod Anand
क‍िसान तक
  • New Delhi ,
  • Aug 12, 2025,
  • Updated Aug 12, 2025, 8:33 AM IST

बिनोद आनंद
जब भी इतिहास के पन्ने पलटते हैं, एक अडिग, अजेय आवाज गूंजती है—स्वामी सहजानंद सरस्वती की. यह वही आवाज है, जिसने 1930 के दशक में बिहार की धूल-धूसरित धरती से उठकर अंग्रेजी हुकूमत के साम्राज्य को ललकारा. यह वही लाठी थी, जिसने नील की खेती के नाम पर किसानों के खून-पसीने की लूट को रोका, जमींदारी और साहूकारी की जकड़न को तोड़ा, और किसानों को यह विश्वास दिलाया कि वे अपने हक के लिए लड़ सकते हैं—और जीत सकते हैं. 

स्वामी सहजानंद का संघर्ष

उनका आत्मसंघर्ष और आंदोलन, जिसे उन्होंने अपनी आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” में दर्ज किया है, सिर्फ जमीन या फसल का सवाल नहीं था, बल्कि किसान की आत्मसम्मान की लड़ाई थी. उन्होंने किसान क्रांति’ का आधार रखा,साफ कहा—“जब तक किसान संगठित नहीं होगा, तब तक कोई शक्ति उसका शोषण रोक नहीं सकती.” नील विद्रोह हो, नहर कर विरोध हो, या बखरी-सोनारसा आंदोलन—स्वामी जी हर मोर्चे पर किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे. 

आज की लड़ाई – अलग किरदार, वही जज्बा

आज इतिहास खुद को दोहरा रहा है. फर्क बस इतना है कि उस दौर में सामने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और उनकी व्यापारिक नीतियां थीं, और आज उनके स्थान पर अमेरिकी संस्थान, CGIAR नेटवर्क और अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी ट्रेडर खड़े हैं, जो अपनी नीतियों से भारत के किसान को वैश्विक बाजार के हाशिये पर धकेलना चाहते हैं. डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ वार का असली मकसद भी महज़ व्यापार संतुलन नहीं, बल्कि कृषि उत्पादों पर दबाव बनाकर भारत जैसे देशों को झुकाना है. 

ट्रंप का टैरिफ वार – किसानों की नई चुनौती

टैरिफ वार, जिसे ट्रंप कूटनीतिक टेबल पर सौदेबाजी के हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं, अमेरिकी किसानों को बचाने और भारतीय कृषि को कमजोर करने की चाल है. सोयाबीन, चना, मक्का, और अन्य फसलों पर आयात शुल्क और गैर-शुल्क बाधाएं, दरअसल हमारे किसान के लिए वही भूमिका निभा रही हैं, जो नील खेती की जबरन व्यवस्था ने बिहार के किसानों के लिए निभाई थी. फर्क बस इतना है कि अब रंग नील का नहीं, बल्कि डॉलर का है. 

सहकारिता – स्वामी जी की लाठी का नया रूप

आज उस ऐतिहासिक लाठी का नया रूप है—सहकारी आर्थिक ढांचा (Cooperative Economic Framework). यह वह संगठनात्मक शक्ति है, जो किसानों को बिचौलियों, वैश्विक सटोरियों और कमोडिटी ट्रेडिंग के एकाधिकार से आज़ाद कराने के लिए तैयार है. यह ढांचा किसानों को न सिर्फ उत्पादन और विपणन में, बल्कि मूल्य निर्धारण में भी निर्णायक भूमिका दिला रहा है. 

इतिहास से सबक – जवाब उसी अंदाज में

जिस तरह 1930 में स्वामी सहजानंद ने किसानों को संगठित कर अंग्रेजों को यह सबक सिखाया कि किसान की सहनशीलता को कमजोरी मत समझो, उसी तरह आज भी भारतीय किसान दुनिया को यह सिखाने के लिए तैयार है कि वह खेत में फसल उगाने के साथ-साथ वैश्विक मंच पर भी अपनी ताकत दिखा सकता है.  आज का किसान जानता है कि वह ट्रंप के टैरिफ वार का जवाब अमेरिकी बाजार पर निर्भरता घटाकर, अपने उत्पादों को सहयोगी देशों और वैकल्पिक बाजारों में भेजकर दे सकता है. वह जानता है कि कृषि निर्यात को बढ़ावा देना, जैव ईंधन और प्रोसेसिंग में निवेश करना, और सहकारी मॉडल को मजबूत करना ही उसका असली हथियार है. 

किसकी होगी जीत 

नील क्रांति के दिनों में जो संघर्ष शुरू हुआ था, वह आज अमेरिकी टैरिफ वार के खिलाफ लड़ाई में बदल चुका है. तब भी लक्ष्य किसान की आज़ादी था, आज भी वही है. फर्क बस इतना है कि आज वह लाठी, जिसे स्वामी जी ने किसान के अधिकारों की रक्षा के लिए उठाया था, अब सहकारी आर्थिक ढांचा बन चुकी है—और यह ढांचा अमेरिकी संस्थानों और CGIAR जैसी संस्थाओं के एकाधिकार को तोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है. किसान की यह लड़ाई नील के रंग से शुरू होकर आज वैश्विक व्यापार के रंग तक पहुंच चुकी है—और अंतत: जीत उसी की होगी, जिसने धरती पर अपने पसीने से जीवन बोया.  

(बिनोद आनंद राष्ट्रीय किसान प्रोग्रेसिव एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं) 

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