त्रिभुवन सहकार विश्वविद्यालय की स्थापना सहकारिता के कायाकल्प में ऐतिहासिक कदम

त्रिभुवन सहकार विश्वविद्यालय की स्थापना सहकारिता के कायाकल्प में ऐतिहासिक कदम

IRMA (इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद) और अमूल, भारत की सहकारी आंदोलन के दो स्तंभ हैं. IRMA वर्षों से ऐसे पेशेवर प्रबंधक तैयार कर रहा है जो जमीनी संगठनों को आसानी के साथ चला पाते हैं. अमूल की सफलता का मूल आधार यह रहा है कि इसके संचालन में निर्णय लेने का अधिकार किसानों से चुने गए नेताओं के पास रहा है.

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क‍िसान तक
  • Noida,
  • Jun 28, 2025,
  • Updated Jun 28, 2025, 5:59 PM IST

1991 के आर्थिक संकट के बाद, भारत ने राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था से मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की ओर रुख किया. यह बदलाव काफी जरूरी था और इससे देश को विकास की नई राह मिली, लेकिन इसके साथ ही आम लोगों में असमानता की खाई और भी गहरी होती चली गई. आर्थिक प्रगति का लाभ मुख्यतः कॉरपोरेट जगत और शहरी वर्ग तक ही सीमित रह गया, जबकि ग्रामीण और कृषि-आधारित तबके वाले लोग इससे वंचित रह गए.

ऐसे समय में सहकारिताएं केवल आर्थिक संस्थान नहीं, बल्कि समावेशी और लोकतांत्रिक संपत्ति निर्माण के सशक्त माध्यम के रूप में उभरती हैं. इसकी एक सशक्त मिसाल हमें मिलती है जब हम रिलायंस इंडस्ट्रीज और अमूल की तुलना करते हैं. जहां रिलायंस 12 लाख करोड़ रुपये के मूल्यांकन के साथ मुख्यतः अंबानी परिवार के लिए संपत्ति बनाता है, वहीं, अमूल 90,000 करोड़ रुपये के टर्नओवर के साथ लाखों किसानों को समृद्ध बनाता है, जो इसके वास्तविक मालिक हैं. यह केवल संपत्ति का पुनर्वितरण नहीं, बल्कि एक सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण है.

भारत की सहकारी आंदोलन के दो स्तंभ

IRMA (इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद) और अमूल, भारत की सहकारी आंदोलन के दो स्तंभ हैं. IRMA वर्षों से ऐसे पेशेवर प्रबंधक तैयार कर रहा है जो जमीनी संगठनों को आसानी के साथ चला पाते हैं. अमूल की सफलता का मूल आधार यह रहा है कि इसके संचालन में निर्णय लेने का अधिकार किसानों से चुने गए नेताओं के पास रहा है, जिससे सामाजिक उत्तरदायित्व और आर्थिक कुशलता का मेल संभव हुआ.

लेकिन इस मॉडल को बड़े स्तर पर दोहराने के लिए केवल आर्थिक सोच काफी नहीं है. इसके लिए तीन आधारशिलाओं की जरूरत है. पहली त्रिभुवनदास पटेल जैसा सामाजिक पूंजी और सहकारी भावना, सरदार वल्लभभाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसा राजनीतिक संकल्प और डॉ. वर्गीज कुरियन जैसा आर्थिक कौशल और नवाचार.

त्रिभुवन सहकार विश्वविद्यालय की स्थापना ऐतिहासिक कदम

इसी दिशा में त्रिभुवन सहकार विश्वविद्यालय की स्थापना एक ऐतिहासिक कदम हो सकता है. यह विश्वविद्यालय ऐसे नेतृत्व को गढ़ने का केंद्र बन सकता है जो न केवल सामाजिक रूप से प्रतिबंध हो, बल्कि प्रबंधन और नैतिक रूप से दृढ़ हो. यह महज एक विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि एक शांत क्रांति का आधार बन सकता है, जो केवल असमानता को घटाए नहीं, बल्कि आर्थिक विकास, स्वामित्व और न्याय की परिभाषा को ही बदल दे.

आज जब आर्थिक विकास अक्सर सामाजिक दरारों के साथ आता है, सहकारिता का मॉडल लोकतांत्रिक भी है और आर्थिक रूप से प्रभावशाली भी. अब समय आ गया है कि इस मॉडल को केवल आर्थिक साधन नहीं, बल्कि एक नैतिक और सामाजिक आवश्यकता के रूप में अपनाया जाए.

सहकारिता के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति

आज हमारे पास सहकारिता के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति है, जो सहकारिता मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. कुरियन जैसे परिवर्तनकारी नेतृत्व हमें IRMA जैसे संस्थानों से मिल सकते हैं, जिन्होंने आर. एस. सोढी, जयन मेहता और डॉ. मीनष शाह जैसे प्रभावशाली सहकारी नेता देश को दिए हैं. लेकिन जमीनी स्तर की सामाजिक पूंजी, जो किसी भी सहकारी आंदोलन की आत्मा होती है. उसे एक संरचित, निरंतर प्रक्रिया से विकसित करना आवश्यक है.

वर्तमान में किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) और सहकारी संस्थाओं को मिशन मोड में एनजीओ द्वारा ऊपर से नीचे के मॉडल में संगठित किया जा रहा है. यह मॉडल भले ही तेजी से संस्थाओं की संख्या बढ़ा रहा हो, लेकिन वह सबसे अहम चीज को नजरअंदाज कर रहा है. आपसी विश्वास, सामाजिक पूंजी और सहयोग की भावना रातोंरात नहीं बनती, इन्हें शिक्षा और संस्कार से धीरे-धीरे विकसित करना होता है.

स्कूल और स्नातक स्तर पर सहकारी मूल्यों और सिद्धांतों को शिक्षा में शामिल करना इन विचारों को युवाओं के मन में बोने का माध्यम हो सकता है. भविष्य के सहकारी नेतृत्व को केवल बैलेंस शीट पढ़नी नहीं आनी चाहिए, बल्कि उन्हें समानता, भागीदारी और सामाजिक न्याय की भावना से भी ओतप्रोत होना चाहिए. (लेखक, प्रो. राकेश अरावतिया, इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट (IRMA), आणंद, गुजरात)

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