सरकारी नीतियों की नासमझी, वैज्ञानिकों की लापरवाही और किसानों की मजबूरी...तीनों ने मिलकर कपास की खेती का बेड़ा गर्क कर दिया है. कभी किसानों के लिए 'सफेद सोना' कहे जाने वाली कॉटन आज उनके लिए 'संकट’ बन चुकी है. खेतों में उत्पादन घट रहा है, मंडियों में दाम गिर रहे हैं और बाजार में आयात बढ़ रहा है. अब इंपोर्ट ड्यूटी जीरो करके सरकार ने आग में घी डालने का काम कर दिया है. अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत कपास के मामले में भी खाद्य तेल और दालों की तरह पूरी तरह आयात पर निर्भर हो जाएगा. ऐसा लगता है कि हर मामले में अब यही हमारी नियति बन चुकी है. इसे क्या कहें, हुक्मरानों की असफलता या साइंसदानों की नाकामी? अन्नदाता अपनी किस्मत पर रोएं या फिर दीवार पर सर मारें....आइए, दर्द की इस दास्तान को ज़रा सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं.
कुल मिलाकर हालात ये हैं कि भारत मे कॉटन की खेती इस समय सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है. इसके रकबे, उत्पादन और उत्पादकता में गिरावट का दौर शुरू हो गया है, जिसकी वजह से हमारी निर्भरता आयात पर बढ़ रही है. हम रिकॉर्ड आयात की ओर बढ़ रहे हैं. दो साल में ही कॉटन की खेती में 14.8 लाख हेक्टेयर की गिरावट आई है. उत्पादन 42.35 लाख गांठ कम हो गया है. जबकि अक्टूबर 2024 से जून 2025 के नौ महीनों में ही आयात रिकॉर्ड 29 लाख गांठ को पार कर गया है, जो पिछले छह साल में सबसे ज्यादा है. एक गांठ में 170 किलो ग्राम कॉटन होता है. इसी तरह की आयात वाली नीतियों का ही नतीजा है कि खाने वाले तेल और दालों के आयात पर ही करीब 2 लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं. फिर भी सरकार कोई सबक लेते हुए नहीं दिख रही है.
सवाल यह है कि आखिर भारत के सामने एक नया संकट कैसे पैदा हो रहा है. आखिर ऐसा क्या हुआ कि हमारा कॉटन उत्पादन जो 2017-18 में 370 लाख गांठ था वह 2024-25 में सिर्फ 294.25 लाख गांठ पर आकर अटक गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि इसके तीन प्रमुख कारण हैं. आईए समझते हैं कि कैसे प्राइस, पॉलिसी और पेस्ट (कीट) ने भारत में कॉटन को तबाही के रास्ते पर ला खड़ा किया है, जिसकी कीमत आने वाले दिनों के कंज्यूमर को चुकानी होगी. जब कॉटन को लेकर आयात की निर्भरता बहुत अधिक बढ़ जाएगी तब इसके निर्यातक देश मनमाना दाम वसूल सकते हैं, जिसका असर कपड़ों की कीमत पर पड़ेगा.
बहरहाल, चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक है. हम दुनिया का लगभग 24 फीसदी कॉटन पैदा करते हैं. सवाल यह है कि इसके बावजूद भारत के कॉटन किसान क्यों निराश हैं? दरअसल, किसान सबसे ज्यादा परेशान कम उत्पादकता, कम दाम और सरकारी नीतियों से हैं. साल 2021 में कॉटन का दाम 12,000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था जो अब घटकर 6500 से 7000 रुपये तक रह गया है. अधिकांश समय किसानों को एमएसपी जितनी कीमत नहीं मिलती.
दूसरी ओर, वैज्ञानिकों के लाख दावों के बावजूद गुलाबी सुंडी ने बीटी प्रोटीन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है, जिसकी वजह से खेती बर्बाद हो रही है. कीटनाशकों पर किसानों का खर्च बढ़ रहा है. इसकी तबाही की पटकथा लिखने की रही सही कसर आयात शुल्क जीरो करने वाली सरकारी पॉलिसी ने पूरी कर दी है. कॉटन आयात पर अभी सरकार ने 11 फीसदी ड्यूटी लगाई हुई थी, जिसे सरकार ने 19 अगस्त से 30 सितंबर तक के लिए हटा दिया है. इससे आयात को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन भारतीय किसानों को भारी नुकसान होगा.
साउथ एशिया बायो टेक्नॉलोजी सेंटर के संस्थापक निदेशक भागीरथ चौधरी ने कहा कि भारत में कॉटन उत्पादन एक विषम परिस्थिति से गुजर रहा है. जिसमें सबसे बड़ा रोल सरकारी पॉलिसी, गुलाबी सुंडी (Pink Bollworm) और टेक्नॉलोजी का है. अच्छे बीज नहीं हैं इसलिए हमारी उत्पादकता 2017-18 में 500 किलो प्रति हेक्टेयर से घटकर 2023-24 में सिर्फ 441 किलो रह गई है. जबकि इसका विश्व औसत 769 किलो प्रति हेक्टेयर है. अमेरिका एक हेक्टेयर में 921 और चीन 1950 किलो कपास पैदा करते हैं. भारत से बहुत बेहतर स्थिति में पाकिस्तान है, जो एक हेक्टेयर में 570 किलो कपास पैदा करता है.
चौधरी का कहना है कि अब सरकार ने आयात शुल्क जीरो करके इसके तबूत में कील ठोक दिया है. अब भारत कॉटन के मामले में भी खाद्य तेलों और दालों की तरह आयात निर्भर बनने का काम कर रहा है. सरकार आत्मनिर्भर भारत का नारा लगा रही है, लेकिन काम ऐसा कर रही है जिससे अपने यहां खेती और उत्पादन दोनों कम हो रहा है. यही हाल रहा तो देश के लोगों को इस तरह की गलत पॉलिसी की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी.
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