धान एक प्रमुख खाद्य फसल है, जो विश्व की आधी से अधिक आबादी को भोजन प्रदान करती है. चावल के उत्पादन में भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर आता है. भारत में धान की खेती लगभग 500 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है, छोटी जोत तथा कृषि श्रमिकों की अनुपलब्धता तथा जैविक, अजैविक कारकों के कारण धान की उत्पादकता लगातार घटती जा रही है. इन सभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए आज हम बात करेंगे धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोगों और उनकी पहचान एवं प्रबंधन के बारे में. ताकि हमारे किसान अपने धान की फसल में उस रोग की पहचान कर सकें और फसल को बचा सकें. धान की फसल में बुआई से लेकर कटाई तक कई बीमारियों का खतरा रहता है.
खेती के हर चरण में अलग-अलग बीमारियों का प्रकोप होता है. जिससे किसानों को इससे बचने के लिए कई उपाय करने पड़ते हैं. वहीं, कुछ किसान ऐसे भी हैं जो जानकारी के अभाव में अपनी फसलों की देखभाल नहीं कर पाते हैं. ऐसे में आइए जानते हैं कि धान की फसल में कौन सा रोग किस समय लगता है और उससे बचाव का क्या उपाय है?
यह धान की फसल का प्रमुख रोग है जो पायरीकुलेरिया ओराइजी नामक कवक द्वारा फैलता है. इस रोग के लक्षण पौधे के सभी ऊपरी भागों पर दिखाई देते हैं. लेकिन आम तौर पर पत्तियां और बलियाँ इस रोग से अधिक प्रभावित होती हैं. पौधे की निचली पत्तियों पर धब्बे दिखाई देने लगते हैं, जब ये धब्बे बड़े हो जाते हैं तो ये धब्बे नाव या आंख के आकार के हो जाते हैं. इन धब्बों के किनारे भूरे रंग के तथा मध्य भाग राख जैसे रंग के होते हैं. बाद में धब्बे आपस में जुड़ जाते हैं और पौधे के सभी हरे भागों को ढक देते हैं, जिससे फसल जली हुई दिखाई देती है.
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यह रोग जैन्थोमोनस ओराइजी नामक जीवाणु से फैलता है. इसे पहली बार 1908 में जापान में देखा गया था. यह रोग पौधों की चरम अवस्था से लेकर परिपक्व अवस्था तक कभी भी हो सकता है. इस रोग में पत्तियाँ सिरे या किनारों से शुरू होकर मध्य भाग तक सूखने लगती हैं. सूखे किनारे अनियमित और टेढ़े-मेढ़े या झुलसे हुए दिखाई देते हैं. इन सूखी पीली पत्तियों के साथ राख के रंग के धब्बे भी दिखाई देते हैं. संक्रमण की गंभीर अवस्था में पत्तियाँ सूख जाती हैं. बालियों में दाना नहीं है.