भारत का बासमती चावल सिर्फ एक चावल नहीं, बल्कि एक विश्व प्रसिद्ध ब्रांड बन गया है. अपनी मनमोहक सुगंध और पकने पर लंबे होने वाले दानों के कारण यह दुनिया भर में मशहूर है. यही वजह है कि अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ का इस पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा. मगर अगर अमेरिका भारत से बासमती चावल लेना बंद कर दे या उस पर बहुत ज़्यादा टैक्स (टैरिफ) लगा दे, तो इसका असर मुख्य रूप से अमेरिकी बाज़ार और वहां के उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगा. सबसे पहला और सीधा असर कीमतों पर होगा. अमेरिका में रहने वाले, खासकर दक्षिण एशियाई समुदाय के लोग जो बासमती चावल खाने के आदी हैं, उनके लिए चावल महंगा हो जाएगा. भारतीय बासमती की खास सुगंध और स्वाद के कारण इसके विकल्प आसानी से नहीं मिलते.
भारत दुनिया में बासमती चावल का सबसे बड़ा उत्पादक और विक्रेता है. यह हमारी खेती और संस्कृति की एक अनमोल पहचान है. पिछले साल 2023-24 में भारत ने 52 लाख मीट्रिक टन से ज़्यादा बासमती चावल दूसरे देशों को बेचा, जिससे लगभग 5837 मिलियन अमेरिकी डॉलर की कमाई हुई. यह दिखाता है कि पूरी दुनिया में हमारे बासमती चावल का कितना बोलबाला है. अमेरिका भारतीय बासमती चावल का एक अच्छा खरीदार है, लेकिन भारत केवल उसी पर निर्भर नहीं है. पिछले साल अमेरिका छठा सबसे बड़ा खरीदार था. हमारे सबसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्राहक मध्य-पूर्व के देश हैं, जैसे सऊदी अरब, इराक और ईरान. भारत अपना बासमती चावल दुनिया के 154 देशों को बेचता है. इसका मतलब है कि अगर अमेरिका में थोड़ी-बहुत बिक्री कम भी होती है, तो हमारे पास कई और बाज़ार हैं, जिससे हमें कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा.
भारत के प्रमुख बासमती चावल खरीदार देशों में सऊदी अरब सबसे आगे है, जिसने 11.73 लाख मीट्रिक टन चावल का आयात किया, जिससे 10,190.73 करोड़ रुपये की कमाई हुई. इसके बाद इराक ने 9.05 लाख मीट्रिक टन चावल खरीदा, जिससे 7,201 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ, और ईरान ने 8.55 लाख मीट्रिक टन का आयात किया, जिससे 6,374 करोड़ रुपये की कमाई हुई. अन्य प्रमुख खरीदारों में यमन शामिल है, जिसने 3.92 लाख मीट्रिक टन 3,038.56 करोड़ रुपये का आयात किया, और संयुक्त अरब अमीरात ने 3.89 लाख मीट्रिक टन 3,089 करोड़ रुपये का आयात किया. संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2.74 लाख मीट्रिक टन बासमती चावल खरीदा, जिससे भारत को 2,849 करोड़ रुपये की कमाई हुई.
चावल बेचने वालों का मानना है कि अमेरिका का 25% टैक्स एक छोटी-मोटी रुकावट है, जिससे लंबे समय में कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इसके कुछ मुख्य कारण हैं-बासमती एक खास किस्म का चावल है. जिसे इसकी आदत है, वो कीमत थोड़ी बढ़ जाने पर भी इसे खरीदना बंद नहीं करेगा. बढ़ा हुआ टैक्स थोड़ा व्यापारी और थोड़ा ग्राहक मिलकर चुका लेंगे, जिससे इसकी मांग कम नहीं होगी. अमेरिका दूसरे देशों जैसे चीन, वियतनाम और पाकिस्तान से आने वाले चावल पर भारत से भी ज़्यादा टैक्स लगाता है. इस वजह से, टैक्स लगने के बाद भी भारतीय बासमती चावल अमेरिकी बाज़ार में दूसरों से सस्ता और बेहतर रहेगा. इसलिए, यह लगभग तय है कि भारतीय बासमती चावल का सुगंधित असर दुनिया पर ऐसे ही बना रहेगा और अमेरिकी टैरिफ इसके दबदबे को कम नहीं कर पाएगा
अमेरिका में उगने वाला 'टेक्समती' या थाइलैंड का 'जैस्मिन' चावल कुछ हद तक विकल्प हो सकते हैं, लेकिन वे बासमती जैसा अनुभव नहीं देते. इसका असर रेस्टोरेंट और खाद्य व्यापार पर भी पड़ेगा. कई भारतीय और एशियाई रेस्टोरेंट अपने खास व्यंजनों के लिए भारतीय बासमती पर निर्भर करते हैं. उन्हें या तो महंगा चावल खरीदना होगा, जिससे उनके मेन्यू की कीमतें बढ़ेंगी, या फिर उन्हें कम गुणवत्ता वाले चावल का उपयोग करना पड़ेगा, जिससे उनके खाने का स्वाद बदल सकता है. आयातकों को भी नुकसान होगा, क्योंकि उनका व्यापार भारतीय बासमती पर टिका होता है. उन्हें दूसरे देशों से विकल्प तलाशने पड़ेंगे, जो शायद उतने लोकप्रिय या फायदेमंद न हों. कुल मिलाकर, भारत से बासमती न आने पर अमेरिकी उपभोक्ताओं को अपनी जेब ज़्यादा ढीली करनी पड़ेगी और स्वाद से भी समझौता करना पड़ सकता है.