गर्मी, सर्दी, बरसात और मौसम का कहर झेल कर खेती करने वाले किसानों ने बंद कमरों में बैठ योजना बनाने वाले नौकरशाहों और तथाकथित अर्थशास्त्रियों को अपने निर्णय से बड़ा सबक दिया है. धरतीपुत्रों ने बता दिया है कि अगर दाम मिलेंगे तो वे उत्पादन बढ़ाएंगे अन्यथा वे आपको आत्मनिर्भर की बजाय आयात निर्भर बनाकर छोड़ देंगे. सरसों और प्याज की खेती करने वाले किसानों का संघर्ष कमोबेश इसी नतीजे पर पहुंचा है, जो दिल्ली में बैठकर हवा में बात करने वालों के लिए बड़ा जवाब है. किसान कोई चैरिटी नहीं कर रहे हैं कि आप दाम भी नहीं देंगे और वो उत्पादन बढ़ाते रहेंगे. कोविड के बाद दो साल तक सरसों का अच्छा दाम मिला तो किसानों ने खेती बढ़ाई और उत्पादन बढ़ा, उसके बाद जब दाम घटा तो उन्होंने खेती बढ़ाने की रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया. यही हाल प्याज का है. दाम नहीं मिला तो उन्होंने खेती 10 फीसदी घटाकर सरकार को अलर्ट कर दिया है.
इस समय सरकार दलहन और तिलहन के आयात पर बढ़ते खर्च से परेशान है. दूसरी ओर, प्याज की घटती खेती ने चिंता बढ़ा दी है. लेकिन, सच तो यह है कि तिलहन, दलहन या प्याज की खेती तभी बढ़ेगी जब किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे. इसका कोई दूसरा रास्ता नहीं है. इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को किसानों की चीख-पुकार पर आंख नहीं मूंदनी चाहिए. अन्यथा उपभोक्ताओं को भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. उत्पादन कम होगा तो आयात पर निर्भरता बढ़ेगी और जो चीज आयात होगी उसका दाम तो ज्यादा चुकाने के लिए आपको तैयार रहना ही होगा.
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सरकार के पास हर फसल की उत्पादन लागत मौजूद है. इसलिए कोशिश अगर ये होगी कि उन्हें लागत से कम दाम पर फसल बेचने के लिए मजबूर न होना पड़े तभी हम आयात को कुछ कम कर पाएंगे. अगर पॉलिसी ठीक हो तो दलहन-तिलहन के आयात पर खर्च होने वाले पैसा को बचाया जा सकता है, जो सालाना 1 लाख 57 हजार करोड़ रुपये से अधिक बनता है. कृषि उपज का दाम बढ़ने पर सरकार किसानों पर जो कुल्हाड़ी चलाती है वो कुल्हाड़ी अंततः सरकार और उपभोक्ताओं के पैरों पर ही गिर सकती है.
बहरहाल, किसानों ने अपने अर्थशास्त्र से क्या बताया है उसे आप भी समझ लीजिए. साल 2020-21 में सिर्फ 73.12 लाख हेक्टेयर में सरसों की खेती हुई थी. उससे पहले भी 65 से 70 लाख हेक्टेयर तक ही इसका रकबा रहता था. इस दौरान कोविड काल शुरू हुआ. इस साल सरसों के दाम 7000 से 8000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया जो एमएसपी से 60 फीसदी तक अधिक था. इसलिए किसानों ने सरसों की खेती बढ़ा दी. साल 2021-22 में इसकी खेती बढ़कर 91.25 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई. यानी रिकॉर्ड 18.13 लाख हेक्टेयर एरिया बढ़ गया. इतना रकबा कभी नहीं बढ़ा था. किसी योजना से नहीं बढ़ा था. दाम ऐसा ही कायम रहा और परिणाम ये हुआ कि 2022-23 में एरिया 98.02 लाख हेक्टेयर हो गया. यानी 6.77 लाख हेक्टयर वृद्धि हुई.
तिलहन में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के कई कागजी प्रयास हुए. किसानों के नाम पर खजाने का पर्चा भी फाड़ा गया लेकिन रकबा नहीं बढ़ा. लेकिन जब किसानों को दाम मिलना शुरू हुआ तब उन्होंने खेती बढ़ा दी. जिससे खाद्य तेल का उत्पादन बढ़ा. लेकिन पिछले साल यानी 2023 में सरसों का दाम गिरकर एमएसपी से 1000 रुपये तक कम हो गया. सरसों की एमएसपी 5450 रुपये क्विंटल थी और वो 4500 पर बेच रहे थे.
एक तरफ सरकारी खरीद नहीं हुई तो दूसरी ओर मार्केट में एमएसपी से कम दाम मिला. इसलिए किसानों ने इसकी खेती बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वर्तमान रबी सीजन में 97.29 लाख हेक्टेयर में ही सरसों की खेती सिमट गई है. संदेश साफ है कि आप लाख योजनाएं बनाईए. फाइलों को काला और लाल-पीला करिए लेकिन अगर उत्पादक को दाम अच्छा नहीं मिलेगा तो वो खेती नहीं बढ़ाएगा. बल्कि उसे छोड़कर दूसरी फसल में जाने की कोशिश करेगा. इसलिए उत्पादन लागत से ऊपर दाम दिलाने वाली योजनाएं बनाने की जरूरत है.
सरसों की खेती करने वाले किसानों को इस साल अच्छा दाम मिल सकता है. वजह यह है कि एक तरफ खपत बढ़ रही है तो दूसरी ओर प्रमुख तिलहन फसल सरसों की खेती की रफ्तार पर ब्रेक लग गया है. ऐसे में इस बार उत्पादन में बहुत ज्यादा वृद्धि का अनुमान नहीं है, जबकि खपत लगातार बढ़ रही है. सॉल्वेंट एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार भारत में खाद्य तेलों की प्रति व्यक्ति खपत 17.5 किलोग्राम हो गई है, जो पिछले साल से एक किलोग्राम अधिक है.यह स्थिति किसानों को अच्छा दाम दिलवा सकती है. हम खाद्य तेलों की आधा से अधिक जरूरत आयात से पूरी कर रहे हैं.
अब सवाल यह है कि इस साल सरसों की खेती बढ़ाने में किसानों ने उत्साह क्यों नहीं दिखाया? जवाब यह है कि उन्हें अच्छा दाम नहीं मिला. जब किसानों को अच्छा दाम मिला तब उन्होंने खेती बढ़ाई और जैसे ही दाम कम हुआ उन्होंने खेती बढ़ाने का उत्साह कम कर दिया. अगर इस साल भी दाम नहीं मिलेगा तो अगले साल वर्तमान रकबा भी कम हो सकता है. शायद इसीलिए कृषि मंत्रालय ने फसल वर्ष 2023-24 के लिए सरसों के उत्पादन का लक्ष्य सिर्फ 131.4 लाख टन ही रखा है, जो पिछले साल से सिर्फ पांच लाख टन ही ज्यादा है.
भारत खाद्य तेलों का बड़ा आयातक है. वजह यह है कि आजादी के बाद से ही हमने गेहूं और धान की खेती को बढ़ाने पर फोकस किया. नीतियां भी ऐसी ही बनी. वर्तमान में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. एक तरफ हम दलहन और तिलहन के बड़े आयातक हैं और इसमें आत्मनिर्भर बनने का नारा लगा रहे हैं तो दूसरी ओर विरोधाभाषी फैसले ले रहे हैं.
बात दलहन और तिलहन का उत्पादन बढ़ाने की कर रहे हैं जबकि एमएसपी के ऊपर बोनस सिर्फ गेहूं-धान पर देने जा रहे हैं.बीजेपी ने छत्तीसगढ़ में 3100 रुपये प्रति क्विंटल पर धान और मध्य प्रदेश व राजस्थान में 2700 रुपये पर गेहूं खरीदने का वादा किया है. धान का दाम एमएसपी से करीब 900 और गेहूं का दाम 400 रुपये ज्यादा है. अब अगर आप गेहूं-धान पर बोनस देंगे तो किसान गेहूं और धान की ही तो खेती बढ़ाएंगे. वो दलहन, तिलहन का उत्पादन क्यों बढ़ाएंगे.
खाद्य तेलों पर आयात शुल्क नाम मात्र रह जाने की वजह से कारोबारियों को आयात में सहूलियत दिख रही है. घरेलू बाजार से तिलहन खरीदना उन्हें महंगा लग रहा है. इस तरह हमारी नीति ऐसी है कि जो पैसा हमारे देश के किसानों की जेब में जाना चाहिए वह पैसा इंडोनेशिया, मलेशिया, रूस, यूक्रेन, अर्जेंटीना में जा रहा है. हम अपने देश के किसानों को दाम नहीं देना चाहते. ऐसे में वो खेती नहीं बढ़ा रहे हैं जबकि मांग बढ़ती जा रही है. हमारा खाद्य तेल आयात पर खर्च पिछले चार-पांच साल में ही डबल हो गया है. ऑयल वर्ष 2021-22 (नवंबर से अक्टूबर) में 140.29 लाख टन खाद्य तेल का आयात किया गया था. जबकि 2022-23 के दौरान यह बढ़कर 164.66 लाख टन हो गया.
कुछ लोग एक तर्क लेकर खड़े रहते हैं कि सरकार का काम उपभोक्ताओं को भी देखना है. महंगाई को काबू में रखना है. यह बात सौ फीसदी सही है. लेकिन सवाल यह है कि क्या महंगाई कम करने का काम किसानों का गला दबाकर किया जाएगा? महंगाई कम करने की जिम्मेदारी किसानों के ही कंधों पर क्यों हो. जबकि किसानों की आय कैसी है वह किसी से छिपा नहीं है. सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार किसान परिवारों की रोजाना की शुद्ध कमाई सिर्फ 28 रुपये ही है. जब सरकार के पास सभी फसलों की उत्पादन लागत मौजूद है तो ऐसी भी व्यवस्था होनी ही चाहिए कि किसानों को कम से कम उससे कम दाम न मिले. पॉलिसी ऐसी बने कि लागत से अधिक दाम सुनिश्चित हो जाए.
प्रकृति की मार झेलकर जब किसान फसल पैदा कर लेता है तो सरकार उसे उचित दाम नहीं दिला पाती. यह कड़वा सच है. घोषणाएं हो रही हैं लेकिन किसानों को ऐसा बाजार नहीं मिल रहा जिसमें उसकी उपज का उचित दाम मिल रहा हो. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की एक रिपोर्ट बताती है कि 2000 से 2016-17 के बीच भारत के किसानों को उनकी फसलों का सही मूल्य न मिलने वजह से लगभग 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. सोचिए कि अगर किसानों को उनकी उपज का सही दाम मिलता तो क्या उन्हें कर्ज लेने की जरूरत पड़ती?
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