आत्मनिर्भरता के दावों के बीच भारत हर साल दालों के आयात का नया रिकॉर्ड बना रहा है. दलहन आयात लगभग 77 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया है. हालात ये हैं कि पिछले पांच साल में ही भारत ने दालों के आयात पर लगभग सवा लाख करोड़ रुपये खर्च कर डाले हैं. लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि दालों के बढ़ते आयात बिल के बावजूद भारत में दलहन फसलों की खेती बढ़ने की बजाय घट रही है. पिछले चार साल के दौरान ही दलहन फसलों के एरिया में लगभग 31 लाख हेक्टेयर की गिरावट दर्ज की गई है. आखिर ऐसा क्यों है? दलहन में आत्मनिर्भर भारत की बातें बहुत हो रही हैं, प्लान और पीपीटी बहुत बन रहे हैं, फिर भी क्यों इसकी खेती का दायरा सिकुड़ रहा है? इस सवाल का जवाब अधिकारी और सत्ताधारी नेता भले ही न दें, लेकिन इतना तो तय है कि जब तक किसानों को एमएसपी के स्तर तक या उससे अधिक दाम नहीं मिलेगा तब तक कोई भी मिशन सफल नहीं होगा.
केंद्रीय कैबिनेट ने हाल ही में दलहन मिशन की मंजूरी दी है, ताकि भारत को दलहन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया जा सके. इसके तहत सरकार ने अगले छह वर्ष में यानी 2030-31 तक दलहन फसलों का एरिया 310 लाख हेक्टेयर तक पहुंचाने का टारगेट सेट किया है. वर्तमान में 275 लाख हेक्टेयर में दलहन फसलों की खेती हो रही है, जिसमें 35 लाख हेक्टेयर एरिया और जोड़े जाने का लक्ष्य रखा गया है. उत्पादन को 350 लाख टन तक बढ़ाने और उत्पादकता 1130 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक ले जाने का टारगेट भी तय कर दिया गया है. दलहन मिशन के तहत देश के 416 जिलों में फोकस किया जाएगा. इस मिशन पर 11,440 करोड़ रुपये खर्च करने का प्लान है. लेकिन क्या यह प्लान सफल होगा?
दुनिया के दलहन फसलों का 35.87 फीसदी एरिया भारत में है. जबकि विश्व के दलहन उत्पादन में हमारी हिस्सेदारी 27.4 फीसदी है. इस तरह भारत दलहन फसलों का सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन मांग और उत्पादन में गैप होने की वजह से हम सबसे बड़े दाल आयातक भी हैं. इसीलिए सरकार दलहन मिशन शुरू करके देश को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाना चाहती है.
इस मिशन में सबकुछ तो ठीक है लेकिन एक बात जिसकी कमी है वो है किसानों के लिए दाम की गारंटी. अगर दाम की गारंटी नहीं मिली तो फिर मिशन की सफलता आसान नहीं होगी. इसकी वजह भी है.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय और नीति आयोग के अधिकारी दलहन फसलों का एरिया और उत्पादन बढ़ाने के लिए बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वो किसानों के मन की बात नहीं जानते. कड़वी बात यह है कि किसान उन्हीं फसलों की खेती करेंगे जिनमें अच्छा प्रॉफिट मिलेगा. मंत्रालय और नीति आयोग की नारेबाजी और प्रजेंटेशन से उन्हें कोई लेना देना नहीं है. अगर नीति बनाने वाले समय रहते यह मंत्र समझ गए तो अच्छा होगा, वरना आत्मनिर्भरता का नारा लगता रहेगा और देश आयात निर्भर बनता जाएगा.
कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा का कहना है कि केंद्र सरकार की आयात पॉलिसी ने भारत में दलहन-तिलहन फसलों की खेती का सत्यानाश किया है. दलहन-तिलहन फसलों की खेती करने वाले किसानों को तो कायदे से पुरस्कृत किया जाना चाहिए क्योंकि वो आयात बिल में कमी करने का काम कर रहे हैं. लेकिन यहां उल्टे सरकार उन्हें कम दाम का दंड दे रही है. सवाल यह है कि कृषि मंत्रालय और नीति आयोग ने क्या कभी इस बात पर मंथन किया है कि किसानों ने क्यों दलहन फसलों की खेती कम कर दी है? यह मंथन नहीं हुआ, इसलिए इस मिशन में भी खुले बाजार में दालों के दाम की गारंटी नहीं दी गई है. सच तो यह है कि जब तक दाम की गारंटी नहीं मिलेगी तब तक कोई भी दलहन-तिलहन मिशन सफल नहीं होगा. जिस दिन किसानों को अच्छा दाम मिलने लगेगा उस दिन से बिना किसी मिशन चलाए भी दलहन फसलों की खेती का रकबा बढ़ जाएगा और भारत आत्मनिर्भर बन जाएगा.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय के मुताबिक साल 2021-22 में दलहन का फसलों का क्षेत्र 307.31 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया था, जो 2024-25 में बढ़ने की बजाय करीब 31 लाख हेक्टेयर घटकर सिर्फ 276.24 लाख हेक्टेयर पर सिमट गया. इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण वजह है, वो है किसानों को मिलने वाले दाम की. कंज्यूमर के लिए व्यापारी दाम कम करें या न करें लेकिन दलहन के मामले में 'आयात-निर्भर' बन चुके भारत के किसानों को दालों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तक नसीब नहीं हो रहा है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय की खुद की रिपोर्ट बता रही है कि पांच प्रमुख दलहन फसलों में से चार के मंडी भाव में भारी गिरावट दर्ज की गई है, जबकि खेती की लागत बढ़ रही है.
कृषि मंत्रालय की एक रिसर्च रिपोर्ट में बताया गया है कि अगस्त 2024 के मुकाबले अगस्त 2025 में तूर दाल के दाम में 42, उड़द के दाम में 20 और चना दाल के भाव में 18 फीसदी की गिरावट आई है. उधर, 1 अक्टूबर को तूर दाल का दाम एमएसपी से 1838 रुपये, मूंग का 2250 और उड़द का दाम 2063 रुपये कम रहा. दलहन फसलों की उपज का ये हाल तब है जब हम इसके मामले में आत्मनिर्भर नहीं हैं. सवाल यह है कि ऐसे में कोई किसान भला दलहन फसलों की खेती क्यों बढ़ाएगा?
बाजार का कायदा यह कहता है कि जिस फसल का उत्पादन मांग से कम हो किसानों को उसका दाम अच्छा मिलना चाहिए. लेकिन यहां उल्टा हो रहा है. किसानों को सरकारी दाम तक नसीब नहीं हो रहा है. सवाल यह है कि क्या कृषि मंत्रालय के प्रजेंटेशन से ही दलहन फसलों का एरिया बढ़ जाएगा? कड़वी बात तो यह है कि कोई भी किसान घाटे में दलहन की खेती नहीं करेगा. अव्वल तो मांग और उत्पादन में कमी की वजह से दलहन फसलों की खेती करने वाले किसानों को बहुत अच्छा दाम मिलना चाहिए था. लेकिन भारत सरकार की आयात नीति ऐसी है कि उन्हें एमएसपी भी नसीब नहीं हो रहा है.
नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दालों की वर्तमान खपत 290 लाख टन है, जबकि उत्पादन 252.38 लाख मीट्रिक टन है. यानी मांग और आपूर्ति में 37.62 लाख टन दलहन की कमी है. जबकि भारत आयात 76.54 लाख मीट्रिक टन का हुआ है. इस वक्त भारत में दलहन फसलों के दाम में भारी गिरावट आ गई है, जिसकी वजह जरूरत से अधिक दालों के आयात को बताया जा रहा है. बड़ा सवाल यह है कि आखिर मांग से 38.92 लाख टन अधिक दालों का आयात क्यों किया गया? क्या जानबूझकर किसानों को नुकसान पहुंचाने की साजिश रची गई?
ऐसे में या तो नीति आयोग की रिपोर्ट गलत है या फिर कंज्यूमर को खुश करने के नाम पर, कृषि और किसान दोनों को जानबूझकर खतरे में डाल दिया गया है. जब किसानों को एमएसपी भी नहीं मिलेगा तो फिर वो दलहन फसलों की खेती को क्यों आगे बढ़ाएंगे? अगर ऐसे ही हालात रहे तो दलहन फसलों की और दुर्गति होनी तय है. हालांकि, 4 जनवरी 2024 को केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह ने यह वादा किया है कि दिसंबर 2027 से पहले दलहन उत्पादन के क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर बन जाएगा और देश को एक किलो दाल भी आयात नहीं करनी पड़ेगी. देखना है कि यह दावा सच होता है या आयात और बढ़ जाता है?
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