झारखंड के किसान मौसम की मार का सामना करने को मजबूर हैं. मानसून की बेरुखी की वजह से झारखंड में खरीफ सीजन की फसलें प्रभावित हुई थी. नतीजतन धान का उत्पादन कम हुआ था. वहीं अब रबी सीजन में भी सूखे की मार दिखाई दे रही है. इस वजह से झारखंड के किसान रबी सीजन की फसलों की बुवाई नहीं कर पा रहे हैं. झारखंड में सूखे का आलम ये है कि पलामू और गढ़वा जैसे अति सूखाड़ प्रभावित जिलों में किसान और भी परेशान हैं क्योंकि यहां पर अभी ही कुएं और तालाब सब सूख चुके हैं. इन जिलों में सिंचाई के लिए किसान पूरी तरह से किसान प्राकृतिक स्त्रोत पर ही निर्भर रहते हैं.
झारखंड में सूखे का निरीक्षण करने आई केंद्रीय टीम जब पलामू और गढ़वा के गांवों में गई थी. उस वक्त ग्रामीणों ने अपना दर्द सुनाते हुए कहा था कि सभी कुएं और तालाब सूख चुके हैं, उनके पास पीने के लिए भी पानी उपलब्ध नहीं है. कई जगहों पर चापाकल भी फेल हो गए थे. इसलिए ग्रामीण अपने लिए सबसे पहले पेयजल की व्यवस्था करने की मांग कर रहे थे. इस दौरान टीम द्वारा भौगोलिक निरीक्षण में भी पाया गया कि आमतौर पर जो कुएं तालाब फरवरी मार्च तक सूखते थे. उनमें अभी ही पानी खत्म हो चुका है.
झारखंड के चुंद गांव के रहने वाले किसान सुखदेव उरांव बताते हैं कि हर साल वो गेहूं की खेती करते हैं. लेकिन, इस साल वो गेंहू की फसल नहीं लगा रहे हैं क्योंकि इस बार उनका कुआं पूरी तर सूखा हुआ है, सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था नहीं है. वे बताते हैं कि खेत से कुछ दूरी पर एक तालाब भी है. लेकिन, वो भी पूरी तरह सूख चुका है, इसलिए इस बार वो गेहूं की खेती नहीं कर पाएंगे. वे कहते हैं कि वह इसी खेत से हर बार साल भर खाने का इंतजाम कर लेते थे. इसके अलावा कुछ गेहूं बेचकर पैसे भी कमा लेते थे. लेकिन अब चिंता और बढ़ गई है क्योंकि सरकारी कोटे से मिलने वाले गेंहू की मात्रा भी अब कम कर दी गई है.
कई किसान डीप बोरिंग से सिंचाई करके रबी फसलों की खेती कर रहे है,लेकिन, यह काफी महंगा सौदा होता है. इसमें खर्च अधिक होता है और इसके मुकाबले में किसान को कमाई कम होती है. वहीं धान की फसल खराब होने के किसान काफी मायूस है. किसानों का कहना है कि धान की खेती के लिए उन्होंने जितनी मेहनत की उतनी आमदनी नहीं हुई. उत्पादन में कमी आने के कारण कई किसानों ने इस बार धान बेचने के लिए लैंपस नहीं पहुंचे, पैसो की तुरंत जरूरत के लिए किसानों ने ने बिचौलियों को धान की बिक्री की.
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