कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह ने एक चौंकाने वाला दावा किया है कि पिछले दस सालों में करीब ₹2.1 लाख करोड़ का घोटाला हुआ है. ये घोटाला ऑर्गेनिक कॉटन (जैविक कपास) के नाम पर इनऑर्गेनिक कॉटन (रासायनिक कपास) बेचकर किया गया है. मध्य प्रदेश के कई किसानों को “ऑर्गेनिक कॉटन उत्पादक” बताया गया, जबकि असल में वो कभी जैविक कपास उगाते ही नहीं हैं. किसानों को ICS (Internal Control System) के तहत पंजीकृत किया गया, लेकिन उन्हें खुद नहीं पता कि उनके नाम पर क्या हो रहा है.
जो कंपनियाँ ऑर्गेनिक कपास बेच रही थीं, उन्होंने जाली सर्टिफिकेशन बनवाए. ये सर्टिफिकेट उन्हें उन संस्थाओं ने दिए जो सत्यापन (वेरिफिकेशन) के लिए जिम्मेदार थीं. इन सर्टिफिकेशन एजेंसियों और कंपनियों की मिलीभगत से बाजार में नकली ऑर्गेनिक कॉटन बेचा गया.
घोटाले की गंभीरता को देखते हुए GOTS (Global Organic Textile Standard) ने 2020 में 11 कंपनियों को बैन कर दिया और एक बड़ी सर्टिफिकेशन संस्था की मान्यता रद्द कर दी. USDA (अमेरिका) ने 2021 में भारत की ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन को मान्यता देना बंद कर दिया. यूरोपीय संघ (EU) ने 5 भारतीय सर्टिफायरों की मान्यता समाप्त कर दी.
ऑर्गेनिक कॉटन की कीमत इनऑर्गेनिक कॉटन से 2 से 3 गुना ज्यादा होती है. इस झूठे लेबलिंग से न केवल उपभोक्ताओं को धोखा मिला, बल्कि सरकार को भी बड़े पैमाने पर टैक्स नुकसान हुआ.
APEDA ने 2017 से आधार आधारित सत्यापन अनिवार्य किया था, लेकिन 2025 तक भी इसे सही से लागू नहीं किया गया. इससे सर्टिफिकेशन प्रक्रिया में भारी धांधली हुई.
केंद्रीय मंत्री श्री पीयूष गोयल ने 28 नवंबर 2024 को भेजे एक पत्र में स्वीकार किया कि यह घोटाला हुआ है. 8 मार्च 2025 को एक और पत्र में बताया गया कि:
दिग्विजय सिंह ने कहा कि सिर्फ दो कंपनियों में ही ₹750 करोड़ की GST चोरी पकड़ी गई है. और यह घोटाला सैकड़ों कंपनियों में फैला हुआ है.
अगर दो कंपनियों में ही इतने करोड़ का नुकसान हुआ, तो सोचिए, सैकड़ों कंपनियाँ मिलकर कितनी बड़ी रकम की टैक्स चोरी कर रही होंगी! इससे केंद्र और राज्य सरकारों को हजारों करोड़ का नुकसान हो चुका है.
यह घोटाला सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि किसानों की मेहनत और भारत की वैश्विक साख के साथ धोखा है. जरूरी है कि इस मामले की जांच हो, दोषियों को सजा मिले और किसानों का नाम और सम्मान दोनों वापस मिले.
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today