देश में बदलते वक्त के साथ कृषि का तरीका भी बदला है. समय और जरूरत को देखते हुए इसके तौर तरीकों में भी बदलाव आया है. अब धीरे-धीरे कृषि आधुनिक होती है. साथ ही बाजार और मशीनों पर किसानों की निर्भरता बढ़ गई है. अधिक उपज की चाह नें किसान नई पद्धतियों को अपना रहे हैं. पर इन सबके बीच किसान कृषि कि उन पद्धितियो को खोते जा रहे हैं जो कई दशकों से चलती आ रही थी, जो जलवायु परिवर्तन के इस दौर में काफी सहायक भी साबित हो सकती थी. पैरा फसल प्रणाली भी एक ऐसी ही फसल प्रणाली है. जो संरक्षित कृषि का एक बेहतरीन मॉडल है पर वक्त के साथ लोग इसे भूल से गए हैं.
पैरा फसल प्रणाली को जोड़ी फसल प्रणाली भी कहा जाता है. यह फसल प्रणाली आम तौर पर बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में खूब की जाती थी. यह खेती की एक ऐसी पद्धति है जिसमें रिले विधि को अपनाया जाता है. इस विधि में धान की खड़ी फसल में कटाई से लगभग दो सप्ताह पहल मसूर या लथीरस या उर्दबीन या मूंग के बीज डाले जाते हैं. यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें जुताई, निराई, सिंचाई और उर्रवरक के इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं होती है. इतना ही नहां इस प्रणाली में अच्छी उपज भी प्राप्त होती है. साथ ही पानी की भी बचत होती है.
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इस विधि से खेती करने के लाभ यह होता है कि इसमें चावल की कटाई के समय खेत की मिट्टी में जो नमी उपलब्ध रहती है उसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से दूसरी फसले के लिए हो जाता है. वरना फसल की कटाई के बाद यह नमी तुरंत ही खत्म हो जाती है. इस खेती को लेकर किए गए प्रयोग में यह तथ्य सामने आया है कि धान की कटाई के बाद फिर खेत की जुताई और फसल की रोपाई करने की विधि की तुलना में पैरा फसल प्रणाली में अगर फसल रहते दूसरी फसलों की बीज की बुवाई कर दी जाती है तो फसल की पैदावार काफी अच्छी होती है. यह भूमि उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए संसाधनों का उपयोग करने का एक बेहतर तरीका है.
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यह बहुफसलीकरण की एक विधि है जिसमें एक फसल को दूसरी फसल की कटाई से काफी पहले खड़ी दूसरी फसल में बो दिया जाता है. यह किसानों के पास स्थानीय तौर से उपलब्ध संसाधनों के पूरा उपयोग को बढ़ावा देता है. साथ ही बुवाई के समय में आने वाली परेशानी, उर्वरक प्रयोग और मिट्टी के क्षरण जैसे परेशानियों को हल कर सकता हैं. इसके अलावा इसमें किसानों को जुताई और खाद का खर्च बचता है. इससे लागत कम आती है.
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