भारत में एक ऐसा ऐतिहासिक नारियल का पेड़ है जिसे बचाने के लिए देश के वनस्पति वैज्ञानिक लंबे समय से प्रयास कर रहे हैं. दुर्लभ प्रजाति का यह पेड़ 125 साल पुराना है. यह पेड़ देश के वनस्पति वैज्ञानिकों के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है. इस पेड़ के 1894 में अंग्रेजों द्वारा लगाया गया था. वैज्ञानिकों को डर इसलिए भी सता रहा है क्योंकि दोहरा नारियल प्रजाति का यह मादा पेड़ अब मरने के कगार पर पहुंच गया है. इसलिए इसकी देखभाल अब विशेष तरीके से की जा रही है. वैज्ञानिकों नें इस पेड़ की प्रजाति को आगे बढ़ाने के लिए इसके फलन के लिए कई गंभीर प्रयास किए. उनके प्रयास से पेड़ में फलन तो शुरू हुआ पर उसमें एक भी परिपक्व फल प्राप्त नहीं हो सका.
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस पेड़ के मरने के पहले इससे एक भी परिपक्व फल प्राप्त हो जाता है तो इससे दूसरा पेड़ तैयार किया जा सकता है. ऐसे में देश को एक औऱ दोहरे नारियल वाला पेड़ मिल सकता है. पर अगर परिपक्व फल देने से पहले ही इस पेड़ की मौत हो जाती है तो उन वैज्ञानिकों की मेहनत असफल हो जाएगी जो पिछले कई दशकों से इसके पीछे लगातार प्रयास कर रहे हैं. दोहरे नारियल की प्रजाति के पेड़ दुनिया में केवल सेशेल्स द्वीपों पर ही पाए जाते हैं. पर अंग्रेजों ने भारत के अलावा श्रीलंका और थाईलैंड जैसे देशों में इसके पेड़ लगाए थे. यह पेड़ 1200 साल तक जीवित रह सकता है. इसके पेड़ 25 किलों तक के फल का वजन सह सकते हैं.
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भारतीय वनस्पति वैज्ञानिकों के अननुसार भारत में यह पेड़ अपनी मूल जलवायु से अलग हटकर बढ़ रहा है. इसलिए यह अपने अपना पूरा जीवन नहीं जी पा रहा है. लगभग एक सालों से इस पेड़ में कोई नया पत्ता नहीं निकला है, जबकि पेड़ की मौजूदा पत्तियां पीली हो रही है. यह एक बड़ा रोचक पेड़ होता है. इसकी पत्तियां पंखे के आकार की होती है. इस पेड़ की ऊंचाई 30 मीटर तक होती है. दोहरे नारियल की यह पेड़ की प्रजाति लगभग लुप्त होने के कगार पर है. इसलिए इस पेड़ का संरक्षण किया जाता है. इसके नर और मादा पेड़ अलग-अलग होते हैं. इसके फल बड़े हर्ट शेप में होते हैं. उनका वजन 15-20 किलो होता है और उन्हें पकने में पांच से आठ साल का समय लगता है.
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भारतीय वनस्पति उद्यान के पूर्व निदेशक एच एस देबनाथ के अनुसार जब यह पड़े 94 साल का था तब इसमें पहली बार फल आया था.जब पता चला कि यह मादा वृक्ष है तब नर वृक्ष की खोत शुरू हुई जो श्रीलंका में पाया गया. फिर परागन का प्रयास किया गया लेकिन यह प्रयास विफल रहा. बता दें कि भारत में यह पेड़ पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के नजदीक हावड़ा के 232 वर्ष पुराने आचार्य जगदीश चंद्र बोस भारतीय वनस्पति उद्यान में स्थित है. इस पेड़ को बचाने के लिए नीम आधारित फफूंदीनाशक का प्रयोग किया जाता है साथ ही भारी फलों के बोझ से बचाने के लिए रस्सियों का सहारा दिया जाता है.
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