ड्रैगन फ्रूट की खेती इन देश में काफी जोर पकड़ रही है.इस खेती की खासियत यह होती है कि किसान इससे लंबे समय तक अच्छी कमाई कर सकते हैं. बाजार में इसकी मांग बनी रहती है इसलिए किसानों को इसकी अच्छी कीमत भी मिलती है. पर इसकी खेती करने के पहले किसानों को इसकी खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों के बारे में जानना चाहिए. किसी भी फसल, फल या सब्जी में उनकी गुणवत्ता और उत्पादन के लिए उसके उन्नत किस्म पर ध्यान देना पड़ता है. क्योंकि अगर उन्नत किस्म के बीज नहीं रहेंगे तो इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ता है और किसानों की कमाई पर पड़ता है. ड्रैगन फ्रूट की खेती पर भी यही नियम लागू होती है. इसलिए किसानों को इसकी उन्नत किस्म के बारे में जानना चाहिए.
देश में आमतौर पर तीन किस्मों के ड्रैगन फ्रूट की खेती की जाती है. इनके किस्मों को फलों और बीजों रे रंग और आकार के आधारत पर अलग-अलग किया गया है. भारत में सबसे अधिक खेती ड्रैगन फ्रूट के सफेद किस्म की कि जाती है. इसके पौधे से होने वाला फल का अंदूरूनी हिस्सा सफेद होता है. इसके अंदर छोटे-छोटे बीज होते हैं जिनका रंग काला होता है. हालांकि इस किस्म को बाजार में दूसरी किस्मों की अपेक्षा कम कीमत मिलती है.
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ड्रैगन फ्रूट की दूसरी किस्म लाल गुलाबी किस्म होती है. भारत में इस किस्म की खेती बहुत ही कम क्षेत्र में की जाती है. इस किस्म के पौधों से जो फल निकलता है उसका अंदरूनी भाग गुलाबी होता है. साथ ही पक जाने पर फल का ऊपरी रंग भी गुलाबी हो जाता है.इस किस्म की खासियत यह होती है कि यह खाने में बेहद स्वादिस्ट होता है. इसलिए बाजार में इसकी किस्म सफेद किस्म वाले ड्रैगन फ्रूट से अधिक होती है. बाजार में इसकी कीमत सफेद किस्म से अ्छी होती है.
ड्रैगन फ्रूट की तीसरी किस्म पीली होती है. भारत नें बहुत कम क्षेत्रों में ही इसकी खेती की जाती है. इस किस्म के पौधों से जब ड्रैगन फ्रूट के फल आते हैं तो उनका बाहरी रंग पीला होता है. जबकि काटने पर उसके अंदर के गुदे का रंग सफेद होता है. इस फल का स्वाद सबसे अच्छा होता है. इसलिए बाजार में इसकी कीमत दूसरी दोनों ही किस्मों से अधिक होती है और लोग इसे खाना खूब पसंद करते हैं.
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ड्रैगन फ्रूट की के पौधे एक बार तैयार होने के बाद इससे 25 सालों तक फल लिया जा सकता है. इस दौरान इसे सिर्फ सिंचाई और खाद की जरूरत होती है. साथ ही इसके खेत के खरपवार को साफ करते रहना चाहिए. इसके खेती के लिए पहले ही गड्ढे तैयार किये जाते हैं. जिनमें प्राकृतिक और रसायानिक खाद को मिलाकर भरा जाता है. इसके बाद फिर गड्डों में पानी डाला जाता. फिर बाद में इसमें पौधों की रोपाई की जाती है. प्रत्येक तीन साल बाद पौधों में गोबर खाद और एनपीके डालना पड़ता है.
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