
पश्चिमी राजस्थान में एक कहावत है. ‘राबड़ी भी कैवे म्हाने मैंढ़ै नीचे राखो.’ मतलब राबड़ी (छाछ, बाजरे के दलिया और मोठ से बना आहार) भी कहती है कि मुझे शादी के मंडप के नीचे लाओ. इस कहावत के मूल में वो परंपरा है जिसके अनुसार शादी के पीले चावल बंटने के बाद सुमठनी यानी विदाई तक घर में राबड़ी नहीं बनाई जाती. पश्चिमी राजस्थान में आज भी यह परंपरा चलन में है, लेकिन अब राबड़ी मैंढ़ै नीचे आई आने लगी है. किवदंतियों के नाम पर बनी परंपराएं अब टूटने लगी हैं. इसकी शुरूआत का एक उदाहरण है बीकानेर के लूणकरणसर में हुई एक शादी.
इस शादी में ना सिर्फ बारातियों को मिलेट्स का खाना परोसा गया. बल्कि विदाई के वक्त समधी के दूध पिलाने की परंपरा भी राबड़ी पिलाने के साथ बदल दी गई.
बीकानेर जिले के लूणकरणसर में 11 मई को एक अनोखी शादी के सैंकड़ों लोग गवाह बने. दरअसल, यहां एक शिक्षक भैराराम गोदारा की बेटी की शादी में मिलेट से बना खाना बराती और घरातियों को परोसा गया. इसकी चर्चा सोशल मीडिया पर काफी हो रही है. इस पहल के ज़रिए दूल्हा-दुल्हन ने भी राबड़ी पी और मिलेट्स से बना खाना खाया. वहीं, विदाई के समय समधी व बरातियों को दूध पिलाकर विदा करने की सदियों से चली आ रही रस्म को भी बदल दिया गया.
बरातियों को दूध की जगह बाजरा व मोठ से बनने वाली राबड़ी परोसी गई. सभी बारातियों व वधू पक्ष के रिश्तेदारों ने एक जाजम पर बैठकर सामूहिक रूप से राबड़ी पी. इतना ही नहीं सुबह के भोजन में भी मोटे अनाज को शामिल किया गया. जलेबी, पूड़ी-चना व रायता की जगह लापसी,सांगरी और राबड़ी का खाना बनाया गया.
शिक्षक भैराराम गोदारा ने बताया कि इस शादी में उन्होंने किसी भी तरह का प्लास्टिक या डिस्पोजेबल चीजों का उपयोग नहीं किया है. पारिवारिक वानिकी हरित विवाह के विचार को अपनाया गया है. सभी बरातियों व रिश्तेदारों को फलदार पौधे भेंट किए गए. साथ ही पौधों को हरित सदस्य के रूप में अपने परिवार का हिस्सा बनाने का आग्रह किया. दुल्हन अभिलाषा व दूल्हे संजय ने देसज फलदार पौधे को रोपा भी और हर साल एक पौधे को पेड़ बनाने का संकल्प लिया.
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शादी-ब्याह और अपने तीज-त्योहारों में देसज खाने और परंपराओं को फिर से स्थापित करने की यह पहल पर्यावरणविद् और प्रोफेसर श्यामसुंदर ज्याणी ने शुरू की है. ज्याणी संयुक्त राष्ट्र द्वारा लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड से सम्मानित हैं. किसान तक ने उनसे बात की.
वे बताते हैं, “मैं बरसों से पारिवारिक वानिकी के विचार को आगे बढ़ाने के लिए उसे रीति-रिवाज का हिस्सा बनाने में लगा हुआ हूं. इसते तहत तीज-त्योहार और विवाह की रस्मों में पौधारोपण व पर्यावरण हितैषी व्यवहार को जोड़ा जाता है. इस बार हमने एक और कदम आगे बढ़ाया है. इसमें मैंने अपने मित्र भैराराम गोदारा की बेटी की शादी में मोटे अनाज को शादी के खाने में जोड़ने का विचार दिया. परिवार भी इस बात के लिए राजी हो गया और फिर जो हुआ वो बीकानेर क्षेत्र में अपने आप में इतिहास बना है.
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ज्याणी बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में हमारे समाज में पारंपरिक, पौष्टिक खाने से दूरी बनी है. शादियों में भी पश्चिमी समाज के खाने चलन में आ गए हैं. युवा पीढ़ी की खान-पान की आदतें बदल गई हैं. इसे परंपराओं की तरफ मोड़ने के लिए हम 23 मई को राबड़ी दिवस मनाने जा रहे हैं.
इस दिन चांदनी चौथ यानि शुक्ल पक्ष की ज्येष्ठ चतुर्थी है. इस तरह के आयोजन हमें हमारे पारंपरिक खाने-पीने की आदतों की तरफ मोड़ने के लिए ड्राइविंग फोर्स का काम करती हैं.
साल 2023 अंतरराष्ट्रीय ईयर ऑफ मिलेट्स भी है. इसे भारत सरकार के प्रस्ताव पर यूएन ने घोषित किया है. ज्याणी कहते हैं कि मोटे अनाज राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे देश में लोगों के खाने की आदत थी, लेकिन धीरे-धीरे बाजार ने गांवों से भी यह सब खत्म कर दिया.
अब हमारी पूरी एक पीढ़ी की फूड हैविट्स बदल चुकी हैं. हालांकि अगर हम अभी से शुरूआत करें तो अगले कुछ दशकों में हम अपने पुराने स्वाद और पौष्टिकता की ओर लौट सकते हैं.
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