गेहूं के साथ पिस रहा है क‍िसान! समझें नीतियों की समीक्षा क्यों है जरूरी

गेहूं के साथ पिस रहा है क‍िसान! समझें नीतियों की समीक्षा क्यों है जरूरी

जिन लोगों ने 1971 में 3 रुपये में बालकनी में बैठकर ‘हाथी मेरा साथी’ फिल्म देखी होगी, वो आज 400 रुपये देकर ‘पठान’ फिल्म देख रहे हैं. यानी फिल्म की टिकट 130 गुना महंगी हो गई. लेकिन तब गेहूं की खेती से जिस किसान की जेब में 1 रुपये आता था, उनकी जेब में आज सिर्फ 1 रुपये 30 पैसे ही आता है. प्रश्न ये है कि क्या सरकारी नीतियां किसानों के हित में हैं?

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गेहूं के साथ पिस रहा है क‍िसान! समझें नीतियों की समीक्षा क्यों है जरूरी गेहूं के गणित में उलझे किसान, कौन काट रहा है चांदी? फोटो क्रेडिट (GFX)- संदीप भारद्वाज

मध्यप्रदेश के कई क्षेत्रों में गेहूं की नई फसल बाजार में आ चुकी है. यहां पर बाजार में 3200 रुपये प्रति क्विंटल गेहूं का चल रहा ऊंचा रेट हर किसी को चौंका रहा है. क्योंकि गेहूं का रेट ज्यादा होगा तो आटा महंगा होगा और महंगी रोटी का खयाल हर किसी को डराने लगा है. चूंकि वर्ष 2023-24 के लिए गेहूं का जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तय किया गया है, वो मात्र 2125 रुपये प्रति क्विंटल है, इसलिए सरकार गेहूं के रेट नीचे लाने का लगातार प्रयास कर रही है. महंगे रेट से फिलहाल किसान भले ही खुश नजर आ रहे हों, आने वाले समय में गेहूं का रेट टूटना तय माना जा रहा है. 

13 मई 2022 को सरकार ने गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी, जिससे गेहूं का मार्केट प्राइस नीचे गिर गया. अब सरकार ने 30 लाख टन गेहूं खुले बाजार में बेचने का फैसला किया है. इससे कीमत और भी नीचे आ जाएगी. चिंता इस बात की है कि जब फरवरी-मार्च में पूरे देश की फसल बाजार में आ जाएगी, तो गेहूं का रेट इतना ना नीचे चला जाए कि किसान के सामने भुखमरी की नौबत हो. एक्सपर्ट्स प्रश्न पूछने लगे हैं कि क्या ये किसान के साथ अन्याय नहीं है? अगर गेहूं के उत्पादक की जेब में पैसा जा नहीं रहा, कंज्यूमर की जेब में पैसा बच नहीं रहा, तो क्या ये समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत है, कि इस व्यवस्था का सबसे बड़ा विलेन बिचौलिया है? अब जब भारत 5 ट्रिलियन की इकॉनमी के लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है तो ये समझना होगा कि इसमें किसान की कितनी हिस्सेदारी होगी.

5 ट्रिलियन इकॉनमी में किसान कहां होगा?

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इस लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है कि वर्ष 2025 तक भारत की 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी होगी. एक्सपर्ट्स मानते हैं कि कोविड जैसी महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से इस लक्ष्य तक पहुंचने की गति धीमी तो पड़ी है, लेकिन इस लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस के 20 फरवरी के अंक में अशोक गुलाटी और रितिका जुनेजा ने अपनी एनालिसिस में बताया है कि भारत इस समय 3.5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी है और IMF की भविष्यवाणी सही रही तो 2027 तक हमारी इकॉनमी 5.4 ट्रिलियन डॉलर की होगी.

ग्रीन रिवॉल्यूशन से अब तक किसानों की आय. फोटो क्रेडिट (GFX)- संदीप भारद्वाज
ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद से अब तक किसानों की कितनी बढ़ी आय.

दोनों एक्सपर्ट्स ने इसी आधार पर भारत के ग्रोथ की दिशा को सही बताया है. IMF के मुताबिक आजादी के 59 साल बाद 2006 में भारत की इकॉनमी 0.96 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंची थी, लेकिन इसके बाद 2016 तक देश की इकॉनमी 2.3 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गई. पिछले छह वर्षों में इकॉनमी ने और भी गति पकड़ी है और इसने 2022 में 3.5 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य को छू लिया है. अब प्रश्न ये है कि आजादी के 100 साल पूरे होने पर जब देश की इकॉनमी 25 से 30 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान जताया जा रहा है, तब किसान कहां पर होगा? ये समझने के लिए ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद से गेहूं किसानों की इकॉनमी को समझना जरूरी होगा.

ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद से किसान कंगाल होता गया?

कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कास्ट्स एंड प्राइसेज यानी CACP के पूर्व चेयरमैन अशोक गुलाटी का कहना है कि सरकारी नीतियों में कंज्यूमर बायस दिखता है. आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि गेहूं का मूल्य बढ़ते ही महंगी रोटी का भय जरूर दिखाया जाता है, लेकिन आटा कितना भी महंगा हो जाए, किसानों की जेब नहीं भरती है. कुछ राज्यों में गेहूं की फसल तैयार होने के बाद मार्केट में अनाज 3200 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा है. किसान जिस MSP की मांग कर रहे हैं, वो C2 प्लस 50% का फॉर्मूला है, जिसके आधार पर गेहूं की कीमत 3150 रुपये प्रति क्विंटल होनी चाहिए. लेकिन सरकार ने वर्ष 2023-24 के लिए जो MSP तय की है, वो 2125 रुपये प्रति क्विंटल है. इससे साफ है कि किसानों को इस समय जो गेहूं का रेट मिल रहा है, वो उम्मीदों से 50 रुपये ही ज्यादा है, लेकिन मार्केट में नई फसल के आने और सरकारी गेहूं के खुले बाजार में आने से उन्हें जो रेट मिलेगा, वो उनकी उम्मीदों से बहुत ही कम हो सकता है.

गेहूं किसानों की जेब साल दर साल खाली होती गई. फोटो क्रेडिट (GFX)- संदीप भारद्वाज
गेहूं किसानों की जेब साल दर साल खाली होती गई. फोटो क्रेडिट (GFX)- संदीप भारद्वाज

ये हाल तब है, जब ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद से किसान की जेब लगातार खाली होती जा रही है. आंकड़े बताते हैं कि 1971-72 में गेहूं से किसान को 2306 रुपये प्रति हेक्टेयर आय होती थी, जबकि 48 वर्ष बाद 2019-20 में किसान को 5332 रुपये प्रति हेक्टेयर ही आय हुई. आगे जब हम अन्य वस्तुओं के मूल्य में हुई वृद्धि के बारे में बताएंगे तो आपके सामने किसानों की दुर्दशा की तस्वीर और भी साफ हो जाएगी.

जिसने देश का पेट भरा, उसकी जेब कटती गई

देश में अन्न का संकट दूर करने के लिए ग्रीन रिवॉल्यूशन शुरू हुआ, देश में गेहूं का उत्पादन बढ़ाया गया, ताकि कोई भूखा ना सोए. लेकिन देश में पांच राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि देश भले ही चैन से पेट भरने लगा हो, किसान कभी भी चैन से नहीं सो सका. जैसा कि हमने पहले भी बताया 1971-72 में जब अन्न का देश में पर्याप्त भंडार नहीं था, तब किसान की प्रति हेक्टेयर औसत आय 2306 रुपये थी, जो 2019-20 में 5332 रुपये पहुंच गई. अब देश के गेहूं उत्पादक पांच प्रमुख राज्यों की स्थिति देखते हैं. उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कुल 80 परसेंट गेहूं की पैदावार होती है.

लेकिन पंजाब में 48 साल में किसान का प्रॉफिट 2561 रुपये से 8353 रुपये तक पहुंचा. हरियाणा में 48 साल में प्रॉफिट 3528 रुपये से 6373 रुपये तक पहुंचा. राजस्थान में 44 साल पहले प्रति हेक्टेयर 1465 रुपये का घाटा होता था, आज मात्र 780 रुपये प्रॉफिट है. उत्तर प्रदेश में 48 साल में प्रॉफिट 2102 रुपये से बढ़कर 3838 रुपये तक ही पहुंचा. मध्यप्रदेश 48 साल में प्रॉफिट 1034 रुपये से बढ़कर 7317 रुपये पहुंचा है. ये सारे आंकड़े CACP के हैं और प्रति हेक्टेयर आय दर्शाते हैं.

उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश को मिला दिया जाए तो दोनों राज्य मिलकर 48 परसेंट गेहूं का उत्पादन करते हैं, लेकिन यहां के किसान कभी भी बड़ा मुनाफा नहीं कमा सके हैं. पंजाब और हरियाणा में प्रॉफिट ज्यादा है, लेकिन कई वर्षों में यहां के किसानों ने भी नुकसान झेला है. पंजाब के किसानों को 48 सालों में सिर्फ 7 साल ठीक प्रॉफिट हुआ. अगर बाकी राज्यों को देखा जाए तो बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के हालात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है.

‘हाथी मेरा साथी’ से ‘पठान’ तक महंगाई

साल 1971 में दो फिल्मों ने जबर्दस्त धूम मचाई थी. एक फिल्म थी ‘हाथी मेरा साथी’ और दूसरी फिल्म थी ‘मेरा गांव, मेरा देश’. कड़वा सच ये है कि जिन लोगों ने 3 रुपये का टिकट लेकर बालकनी में बैठकर तीन घंटे का लग्जरी टाइम गुजारा होगा, वो आज ‘पठान’ फिल्म 400 रुपये में देख रहे हैं. लेकिन ‘मेरा गांव मेरा देश’ फिल्म देखने वाला जो किसान 1 रुपये कमाता था, वो आज भी सिर्फ 1 रुपये 30 पैसे कमाता है. आंकड़ों की गणना करें तो 48 साल में किसानों की आय में सिर्फ 1.30 गुना की बढ़ोतरी हुई है.

देश में 1970 से हर सेगमेंट में कई गुना महंगाई बढ़ी. फोटो क्रेडिट (GFX)- संदीप भारद्वाज
देश में 1970 से हर सेगमेंट में कई गुना महंगाई बढ़ी. फोटो क्रेडिट (GFX)- संदीप भारद्वाज

अब ये भी समझते हैं कि महंगाई कहां से कहां पहुंच गई. 1970 में जो कोका कोला 50 पैसे का था, वो आज 15 रुपये का हो चुका है. 500 ग्राम का जो अमूल बटर साढ़े छह रुपये का था, वो आज 240 रुपये का हो चुका है. जो मारुति 800 कार तब 45 हजार में मिलती थी, वो आज ढाई लाख की हो चुकी है. 1970 में दिल्ली से मुंबई का एयरलाइन का किराया 1500 रुपये हुआ करता था, जो 2022 में औसतन 4500 रुपये है. यानी किसी भी सेगमेंट ने इतना कम ग्रोथ नहीं देखा है, जितना गेहूं के किसानों ने देखा है.

रोटी से कौन हो रहा मालामाल?

अगर गेहूं की खेती करके किसान कंगाल हो गया और कंज्यूमर के लिए आटा हर समय बजट से बाहर रहा, तो प्रश्न उठता है कि इस रोटी से कौन मालामाल हुआ? जाहिर है, ये बिचौलिये हैं जो किसान के सामने कंज्यूमर का हाथ तंग होने का रोना रोते रहे और कंज्यूमर के सामने गेहूं के दाम बढ़ जाने का रोना रोते रहे. एक्सपर्ट्स मानते हैं कि ऐसे बिचौलियों को कंट्रोल करने के लिए ठोस नीतियां बननी चाहिए, जिससे किसानों की जेब भर सके और कंज्यूमर को जेब कटने से बचा सके. 

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