
जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ जिसने राजनीति को पीछे छोड़ दिया. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उपराज्यपाल (एलजी) मनोज सिन्हा मिले लेकिन किसी राजनीतिक खींचतान या सिक्योरिटी ब्रीफिंग के लिए नहीं बल्कि सेब किसानों के लिए. इस हफ्ते जम्मू कश्मीर विधानसभा में सेब किसानों में कैंसर का मसला गूंजा था. इस पर चर्चा करने के लिए कई ऐसे लोग साथ आए जिनके राजनीतिक विचार एकदम जुदा ही रहे हैं.
सीपीएम विधायक एमवाई तारिगामी की अध्यक्षता वाली पर्यावरण पर बनी कमेटी की तरफ से राज्य के टॉप अधिकारियों, एक्सपर्ट्स और साइंटिस्ट्स के साथ एक खास सत्र बुलाया गया था. बागवानी कश्मीर में वह जरिया है जिसकी वजह से लाखों लोगों का गुजारा होता है और कई घरों में चूल्हा जलता है. लेकिन इस पर पॉलिसी में बहुत कम ध्यान दिया जाता है. सालों से, किसान लगातार कीटनाशकों के संपर्क में आ रहे हैं और इसके जहरीलेपन से अनजान होकर बागों में स्प्रे करते रहे हैं. इससे घाटी की अरबों रुपये की सेब की इकॉनमी को चलाने वाले किसानों में ब्रेन ट्यूमर का खतरा बढ़ता जा रहा है. कश्मीर के किसान भारत के कुल सेब में 70 फीसदी से ज्यादा का योगदान देते हैं. लेकिन हाल की खबरों ने चिंताओं को बढ़ा दिया है.
कश्मीर के सेब के बागों में पेस्टिसाइड के खतरे पर असली स्टडी शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (SKIMS) ने की थी. स्टडी में बाग के किसानों में केमिकल एक्सपोजर और खतरनाक ब्रेन ट्यूमर के बीच एक 'काफी मजबूत और मुमकिन' लिंक की पहचान की गई थी. स्टडी में साल 2005 से 2008 के बीच 400 से ज्यादा कैंसर मरीजों की जांच करने के बाद मुख्य फल बेल्ट जैसे बारामूला, अनंतनाग, बडगाम, शोपियां और कुपवाड़ा में प्राइमरी ब्रेन कैंसर के खतरनाक तौर पर बढ़ते मामलों की तरफ इशारा किया गया था.
स्टडी के नतीजों को बड़े स्तर पर नजरअंदाज कर दिया गया था. अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने तारिगामी के हवाले से लिखा, 'हम उन किसानों को डराना नहीं चाहते हैं जो हर मौसम में अपने बागों में स्प्रे करते हैं. लेकिन जब डेटा गंभीर हेल्थ खतरे का इशारा कर रहा हो तो हम चुप भी नहीं बैठ सकते. अगर पेस्टिसाइड स्प्रे से जान को नुकसान हो रहा है तो इस पर ध्यान देना होगा.' कमेटी ने अब साइंटिस्ट और हेल्थ प्रैक्टिशनर से इनपुट मांगे हैं ताकि सेब उगाने वाले जिलों में एक्सपोजर लेवल, केमिकल कंपोजिशन और लंबे समय तक हेल्थ पर पड़ने वाले नतीजों को बताने वाले फील्ड स्टडी डिजाइन की जा सकें.
कश्मीर में सेब की खेती में तेजी साल 1950 के दशक में शेख अब्दुल्ला के समय में हुए जमीन सुधारों से शुरू हुई. उस समय खेती को चावल से बागवानी में बदला गया. साल 1960 के दशक तक, साइंटिफिक स्प्रेइंग शेड्यूल और ग्राफ्टिंग टेक्नीक से बागवानी में इजाफा हुआ. आज, 3.35 लाख हेक्टेयर जमीन पर 3.5 लाख लोग काम करते हैं और यह जम्मू कश्मीर की जीडीपी में करीब 10 फीसदी का योगदान देता है. इससे हर साल हर हेक्टेयर में कम से कम 400 दिन का काम मिलता है, जिससे यह कश्मीर की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र बन गया है.
मीटिंग में शामिल CSIR-IIIM के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. शाहिद रसूल ने कहा कि बागवान अब हर सीजन में फंगीसाइड और इंसेक्टिसाइड के 15 राउंड इस्तेमाल करते हैं, जो अक्सर लिमिट से कहीं ज्यादा होता है. यह मानते हुए कि इससे पैदावार बढ़ती है, कई लोग ज्यादा स्प्रे करते हैं. उन्होंने बताया कि किसान 18-21 दिनों के बजाय अब हर 10-12 दिन में इसका स्प्रे करते हैं. उन्होंने कहा कि बहुत कम लोग प्रोटेक्टिव गियर खरीद सकते हैं और ऐसे में पुरानी खांसी, रैशेज और जलन आम हैं. रसूल ने चेतावनी दी, 'ग्लव्स, गॉगल्स और मास्क के बिना, रिस्क कई गुना बढ़ जाता है.' साथ ही उन्होंने PPE सब्सिडी और सुरक्षित तरीकों पर जोर दया है.
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