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Mataad matadu malige: जब एक फिल्म ने दी हिम्मत, व्यवस्था के खिलाफ एकजुट हुए किसान

Mataad matadu malige: जब एक फिल्म ने दी हिम्मत, व्यवस्था के खिलाफ एकजुट हुए किसान

ये फिल्म 2007 में भारत और कैलिफोर्निया में रिलीज़ हुई. समीक्षकों ने तो इसकी प्रशंसा की ही, फिल्म को दर्शकों का भी भरपूर प्यार मिला. ‘मताड़ मताडु मालिगे!’ को तकनीक और सम्पादन के लिहाज से भी सराहा गया.

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कला और संस्कृति की दुनिया में फिल्मों की बजाय कन्नड़ नाटकों की ज़्यादा चर्चा रही है. बी वी कारन्त और गिरीश कर्नाड के नाम से तो हिन्दी भाषी भी भली भांति परिचित हैं. गिरीश कर्नाड ना सिर्फ अच्छे लेखक, नाटककार थे बल्कि एक कुशल अभिनेता भी थे. वहीं आधुनिक भारतीय रंगमंच में बी वी कारन्त का योगदान भुलाया नहीं जा सकता. कारन्त कन्नड़ फिल्मों मे न्यू वेव सिनेमा के अग्रदूत निर्देशकों में से एक थे. कर्नाटक के बंगलोर में जन्मे महेश दत्तानी आज के महत्वपूर्ण निर्देशक, लेखक और नाटककार हैं जो अंग्रेज़ी में लिखते हैं. और आजकल फिल्म ‘कंटारा’ को कौन नहीं जानता? कन्नड़ निर्देशक-अभिनेता ऋषभ शेट्टी की इस फिल्म ने पूरी दुनिया में अपनी धाक जमाई है.

बहरहाल आज हम बात करते हैं एक ऐसे कन्नड़ निर्देशक, लेखक और गीतकार की जो हमेशा लीक से कुछ अलग हट कर विषयों पर फिल्म बनाते रहे और उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर भी काफी सफल रही हैं. नागाथिहल्ली चन्द्रशेखर खुद कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री के लिए भी एक पहेली ही रहे हैं. ‘मताड़ मताडु मलिगे’ के लिए उन्होने ना सिर्फ एक जटिल विषय चुना बल्कि इसके मुख्य किरदार के लिए चुना कन्नड के कमर्शियल सिनेमा में ‘एंग्री यंग मैन’ के तौर पर मशहूर डॉक्टर विष्णुवर्धन को. ‘सहसा सिंहम’ के उपनाम से मशहूर विष्णुवर्धन कर्नाटक की एक लोकप्रिय हस्ती तो थे ही, भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी किया गया था और विदेशों में बसे कन्नड मूल भारतीयों के लिए वे एक विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतीक की तरह आज भी याद किए जाते हैं.

ऐसी विशिष्ट शख्सियत को नागाथिहल्ली चन्द्रशेखर ने चुना मोगरे के फूलों की खेती करने वाले एक साधारण से किसान हुवैया की भूमिका के लिए . यहां फिल्म के शीर्षक के बारे में भी कुछ बता देना ज़रूरी है. ‘मताड़ मताडु मलिगे’ का अर्थ है ‘बोलो, आवाज़ उठाओ, मोगरे के फूलो’ यह एक मशहूर कन्नड लोकगीत का अंश है और ये नाम फिल्म की कहानी के लिहाज से भी बहुत सटीक है. नागाथिहल्ली ने फिल्म के शीर्षक के बारे में बात करते हुये कहा एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि ये शीर्षक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि किसान की ज़िंदगी भी मोगरे के फूल की तरह होती है. “मोगरे के फूल बहुत कम देर के लिए खिलते हैं लेकिन उनकी खुशबू बहुत देर तक माहौल में रहती है ठीक उसी तरह जैसे किसान के छोटे जीवन में की गयी मेहनत उसकी ज़िंदगी के बाद भी उसके खेतों के रूप में मौजूद रहती है.“

फिल्म की कहानी है हुवैया नाम के किसान की, जो मोगरे की खेती करता है. उसका एक भरा-पूरा परिवार है जिसमे उसकी पत्नी और तीन बेटियाँ हैं. हुवैया एक पढ़ा-लिखा और प्रगतिशील किसान है जो अपने आसपास के माहौल और परिस्थितियों के प्रति जागरूक है. जब वह देखता है कि खनन के मकसद से छोटे किसानों की ज़मीन पर अधिग्रहण के लिए एक बहुराष्ट्रीय कंपनी तमाम तरह के हथकंडे अपना रही है तो वह विरोध करता है. इस अधिग्रहण के दायरे में दस गांव और एक नदी आते हैं.

ज़मीन अधिग्रहण की इस प्रक्रिया में अपने स्वार्थ के लिए उस जगह का विधायक और अन्य प्रभावशाली लोग भी बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ हाथ मिला लेते हैं. हुवैया अपने साथ के लोगों को इकट्ठा करता है, उन्हें प्रेरित करता है विरोध करने के लिए. लेकिन धीरे धीरे एक बड़ी ताकत के आगे सब झुकते चले जाते हैं. हुवैया की पत्नी पुलिस हिंसा में मारी जाती है और उसकी अपनी बेटियाँ साथ छोड़ कर चली जाती हैं. उधर बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ नक्सलवादी भी सक्रिय हो जाते हैं. हिंसा और अकेले छूट जाने के दुख के बीच फूलों की खेती करने वाला यह छोटा किसान हुवैया हार नहीं मानता. आखिरकार वह अहिंसा का रास्ता अख़्तियार करता है और अनशन पर बैठ जाता है. अंत में इस दृढ़निश्चयी व्यक्ति की जीत होती है.

फिल्म 2007 में भारत और कैलिफोर्निया में रिलीज़ हुई. समीक्षकों ने तो इसकी प्रशंसा की ही, फिल्म को दर्शकों का भी भरपूर प्यार मिला. ‘मताड़ मताडु मालिगे!’ को तकनीक और सम्पादन के लिहाज से भी सराहा गया.

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फिल्म को कला या समांतर सिनेमा की तर्ज़ पर नहीं बल्कि ख़ालिस कमर्शियल फ्रेमवर्क में बनाया गया. निर्देशक नागाथिहल्ली अंधाधुंध भूमंडलीकरण और आर्थिक सुधारों के खिलाफ एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर भी सक्रिय रहे थे. इसलिए उन्होंने बतौर सामाजिक कार्यकर्ता अपने अनुभवों का उपयोग फिल्म की कहानी, संवाद लिखने में किया जो बहुत प्रभावपूर्ण हैं. यह फिल्म इस बात का सशक्त उदाहरण है कि फिल्म, संस्कृति और साहित्य समाज व राजनीति से अंतरंग रूप से जुड़े होते हैं.

फिल्म के रिलीज़ होते ही कर्नाटक के वे हजारों किसान विरोध में सड़क पर आ गए जिनकी ज़मीन राज्य या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रोजेक्ट्स के लिए अधिगृहीत की जा रही थी. किसान संस्थाओं, पर्यावरणविद, गैर सरकारी संस्थाओं और यहाँ तक कि राज्य के मंत्रियों तक ने इन प्रोजेक्ट्स की वैधता और अहमियत पर सवाल खड़े करना शुरू कर दिया. नंदगुड़ी कस्बे, होसकोटे तालुक, चमराजनगर ज़िले और मैसूर के आसपास के इलाकों में किसानों ने भूमि के जबरन अधिग्रहण पर जोरदार विरोध शुरू कर दिये. नागाथिहल्ली चन्द्रशेखर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि वे किसानों के साथ हैं और जबरन भू अधिग्रहण का विरोध करते हैं. फिल्मी दुनिया में भी इस फिल्म से हलचल मच गयी और कई साहित्यिक व फिल्म से जुड़ी शख़्सियतों ने किसानों के इस आंदोलन में शिरकत की.

‘मताड़ मताडु मलिगे’ के नायक हुवैया की पत्नी की भूमिका में थीं सुहासिनी रत्नम (सुहासिनी मशहूर फिल्म निर्देशक मणि रत्नम की पत्नी हैं और बतौर अभिनेता दक्षिण भारतीय सिनेमा में अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं ) सुहासिनी भी उतनी ही कुशल अदाकारा हैं जितना कि विष्णुवर्धन. नक्सलवादी नेता की भूमिका में सुदीप हैं जो आजकल कन्नड सिनेमा के सुपरस्टार्स में से एक हैं.

उल्लेखनीय बात यह है कि भूमि अधिग्रहण, किसानों का विस्थापन, नक्सलवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर कमर्शियल तो क्या कला फ़िल्म बनाने में अक्सर फिल्म निर्देशक हिचकिचाते हैं. मगर नागाथिहल्ली चन्द्रशेखर ने इन्हीं विषयों को हाइलाइट करते हुए कमाल की पटकथा और संवाद लिखे. यहाँ एक बात और गौर करने लायक है कि 80 के दशक के बाद से हिन्दी में ऐसे विषयों पर फिल्में बनना लगभग बंद हो गया है जबकि प्रादेशिक भाषाओं में खासकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों में आज भी राजनीतिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण और प्रासंगिक विषयों पर फिल्में बन रही हैं और वो भी कमर्शियल फिल्में.

हुवैया की भूमिका में विष्णुवर्धन ने अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ अभिनय की मिसाल कायम की. सुदीप (जिन्हें फिल्मों के शौकीन लोग ‘किच्चा सुदीप’ के नाम से जानते हैं) उस वक्त दक्षिण सिनेमा में उभरते हुए सितारे थे. फिल्म में अपने संक्षिप्त लेकिन अर्थपूर्ण अभिनय से उन्होने खुद को एक अच्छे अभिनेता के रूप में स्थापित कर लिया और सबसे अहम बात ये कि विकास और भूमंडलीकरण से पैदा हुई तमाम जटिल समस्याओं, छोटे किसानों के दर्द और विस्थापन की पीड़ा- इन सभी मुद्दों को दर्शाते हुए ‘मताड़ मताडु मालिगे!’ यह सूक्ष्म संदेश देती है कि अगर आप सही हैं तो निर्भीकता और अहिंसा के जरिये विषम से विषम हालात पर जीत हासिल की जा सकती है.