पिछले कुछ सालों में दक्षिण भारतीय सिनेमा ने न सिर्फ पूरे देश में बल्कि पूरी दुनिया में अपनी धाक जमाई है. यहां तक कि पिछले साल तो कारोबार की नजर से दक्षिण की फिल्मों ने बॉलीवुड तक को पछाड़ दिया. ‘कांतारा’ उन्हीं चंद बेहद सफल फिल्मों में से एक है. कन्नड़ में रिलीज़ हुई इस फिल्म की लोकप्रियता को देख कर इसे तमिल, तेलुगू, मलयालम और हिन्दी में डब करके भी रिलीज़ किया गया और इन भाषाओं में भी इस फिल्म ने अच्छा कारोबार किया. खास तौर पर ‘कांतारा’ की सफलता इसलिए भी उल्लेखनीय है, क्योंकि कर्नाटक के एक खास अंचल की संस्कृति और आस्था इसमें रची-बसी है और एक लोक-कथा के माध्यम से यह किसानों, प्रकृति और सरकारी व्यवस्था से जुड़ी गंभीर बात कह जाती है.
निर्देशक ऋषभ शेट्टी खुद भी दक्षिण कर्नाटक मूल के हैं. इस तटीय पट्टी पर बहुत से दलित और आदिवासी किसान बसते हैं. उनकी संस्कृति और आस्था सघन रूप से जंगल और ज़मीन से जुड़ी होती हैं. ऋषभ ने इसे बहुत नजदीक से समझा और जाना है. बल्कि उन्होंने बहुत छोटी उम्र में ही कुंडापुरा के लोक नाटक ‘यक्षगान’ में काम करने के साथ ही अपना कलात्मक, व्यावसायिक सफर शुरू किया था.
‘कांतारा’ यानी ‘रहस्यमय जंगल’ पर बात करने से पहले दक्षिण कर्नाटक के आदिवासी और दलित किसानों की संस्कृति को समझना ज़रूरी है. उत्तर भारत के दूर-दराज़ गांवों में बसने वाले गरीब और दलित किसान समुदायों की तरह यहां भी ईश्वर का रूप अलग होता है. इन इलाकों के देवी-देवता प्रकृति के बहुत करीब होते हैं या यूं कहें कि प्रकृति के ही रूप होते हैं.
वैसे तो इस तरह के हजारों देवी देवता होते हैं और लगभग हर इलाके के अलग-अलग देव होते हैं. मगर इस फिल्म में मुख्यतः दो देवों की बात की गई- पंजुरली और गुलिगा देवा. पंजुरली देवा एक क्षेत्र के पालक होते हैं और गुलिगा देवा उसी क्षेत्र के संरक्षक, तो ज़ाहिर है कि गुलिगा देवा अपेक्षाकृत अधिक आक्रामक होते हैं और इन दोनों देवों को प्रसन्न रखने से वह क्षेत्र शांत, समृद्ध और सुरक्षित रहता है. ऐसी वहां के ग्रामीण किसानों की दृढ़ आस्था है.
प्रायः इन देवी-देवताओं का कोई आकार नहीं होता और अमूमन ये किसी वृक्ष के नीचे एक पत्थर के रूप में स्थापित कर दिये जाते हैं. लेकिन समय के साथ कहीं-कहीं इन्हें भी विभिन्न रूप दे दिए गए हैं. ये देवी-देवता उत्तर-मध्य भारत के गांवों में भी देखे जा सकते हैं और दलितों और आदिवासी जन-जतियों की आस्था के अभिन्न अंग होते हैं.
दक्षिण कर्नाटक में एक वार्षिक अनुष्ठान की बहुत मान्यता है जिसे ‘भूता कोला’ कहा जाता है. इसे एक निश्चित परिवार के वंशज ही करते हैं. इसमें एक व्यक्ति देवा का रूप लेकर नृत्य करता है और कुछ देर बाद, कहा जाता है कि उसमें देवा की आत्मा प्रवेश कर जाती है और ऐसी अवस्था में देवा इस व्यक्ति के माध्यम से इलाके के परिवारों की तमाम समस्याएं सुलझाते हैं.
अब हम बात करते हैं फिल्म की कहानी की –जो बहुत सरल है और हमारे देश की अनेकानेक लोक-कथाओं की झलक लिए हुए है. प्राचीन काल में एक राजा था जिसके पास धन, सम्पदा, खुशहाल परिवार सब कुछ था. लेकिन मानसिक शांति नहीं थी. अंततः राजा को जंगल में एक पत्थर के पास शांति मिलती है. ये पत्थर और कोई नहीं स्वयं पंजुरली देवा हैं. राजा पंजुरली देवा को साथ ले जाना चाहता है तो एक आदिवासी के शरीर में प्रकट होकर देवा शर्त रखते हैं कि जहां तक उनकी आवाज़ जाएगी वहां तक का क्षेत्र इन गरीब आदिवासी किसानों का होगा. ये जंगल इन्हीं किसानों का रहेगा और उनके साथ गुलिगा देवा भी रहेंगे. इस जंगल पर और कोई अधिकार नहीं जमाएगा. अगर ऐसा हुआ तो चाहें पंजुरली देवा उसे माफ कर भी दें, क्षेत्रपाल गुलिगा देवा माफ नहीं करेंगे. राजा सहर्ष ये शर्त मान लेता है.
लेकिन राजा की मृत्यु के बाद उसके वंशज कोई न कोई कोशिश करते रहते हैं ताकि जंगल की विशाल ज़मीन उनके अधिकार में आ जाए. उधर ‘भूता कोला’ करने वाले परिवार का बेटा शिवा एक लापरवाह, मस्तमौला व्यक्ति बन जाता है तो इस अनुष्ठान की ज़िम्मेवारी उसी का भाई निभाने लगता है.
क्षेत्र का जमींदार जो राजा का वंशज है, शिवा से बर्ताव तो अच्छा करता है. लेकिन उसके मन में भी ज़मीन को हासिल करने की तीव्र इच्छा है. फिर सरकार द्वारा नियुक्त फॉरेस्ट अफसर भी है, ताकि उस इलाके को संरक्षित वन की श्रेणी में रखा जाए और वहां ग्रामीणों का जाना प्रतिबंधित हो जाए. इस तरह जंगल के वृक्षों और जानवरों की देखभाल हो सके.
ग्रामीण किसान ये बात नहीं समझते क्योंकि जंगल इनके लिए मातृभूमि है. आखिरकार अपने भाई की हत्या के बाद शिवा को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होता है, फॉरेस्ट ऑफिसर को भी एहसास होता है कि आदिवासी जंगल से अलग नहीं, वे भी जंगल का हिस्सा हैं और जमींदार के मंसूबे मिट्टी में मिल जाते हैं.
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निर्देशक ऋषभ शेट्टी ने बहुत खूबसूरती से इस संदेश को फिल्माया है कि जंगल और उससे जुड़े किसान किसी भी जाति-जनजाति के हों, परस्पर घनिष्ठता से जुड़े हैं. ये संबंध वही है, जो मनुष्य और प्रकृति का है. जंगल(प्रकृति) ऊंच-नीच, जाति वगैरह नहीं मानता, जो उसका सम्मान करेगा, देखभाल करेगा उसी का वह भरण-पोषण करेगा.
देखा जाए तो सदियों से हमारी लोक कथाएं यह कहती आ रही हैं. लेकिन अब प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज के मद्दे नज़र ये बात और भी महत्वपूर्ण हो गई है. एक बेहद लोकल कहानी के जरिए ये ग्लोबल बात कहना अपने आप में निर्देशक की एक उपलब्धि है. ऋषभ ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा भी था कि उनका ये दृढ़ विश्वास है, जितना आप अपने स्थानीय मुद्दों और संस्कृति पर ध्यान देते हैं उतना ही आप वैश्विक स्तर पर प्रासंगिक होते जाते हैं.
लेकिन ऋषभ के लिए ये फिल्म बनाना आसान नहीं था. होंबाले फिल्म्स ने प्रॉडक्शन में मदद की. ऋषभ ने अपने ही छोटे से कस्बे कुंडापुर के पास शूटिंग के लिए एक पूरा गांव बसाया, सारे कलाकार और फिल्म क्रू वहां रही. फिल्म की शूटिंग 96 दिन चली, इस बीच ऋषभ शेट्टी को खुद काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा. चूंकि वे खुद ही इस फिल्म के लेखक, निर्देशक और नायक थे, बार बार वे घायल हो जाते. “ये फिल्म मेरे लिए एक आध्यात्मिक यात्रा की तरह थी. मुझे नहीं लगता, इस तरह मैं फिर दोबारा काम कर पाऊंगा.“ ऋषभ ने एक इंटरव्यू में बताया. फिल्म शूट करना क्या था, एक युद्ध की तरह था. 60 प्रतिशत फिल्म को रात में घने जंगल में शूट किया गया. जंगल से घबरा कर स्पॉट बॉयज़ तक आने से इंकार कर देते थे.
फिर अंत के भूत कोला सीक्वेंस के लिए ऋषभ ने पांच दिन व्रत रखा. यही फिल्म का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा है, जिसमें भूता कोला के जरिये किसान की वेदना, व्यवस्था द्वारा आदिवासी परंपरा को समझना, लालची जमींदार का नाश और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से दर्शाया गया है. यहां फिल्म अपने संदेश को आध्यात्मिक स्तर पर ले जाती है, तो वहीं लोक कथाओं में निहित जादुई यथार्थवाद का एहसास भी करवा जाती है.
फिल्म ने परंपरागत अनुष्ठान को लेकर उसके चारों ओर एक ऐसी कहानी गढ़ी है, जो भाषा, धर्म और क्षेत्र के परे दर्शकों के सामूहिक अवचेतन को आकर्षित करती है. यही वजह है कि ‘कांतारा’ ने रिलीज़ होते ही लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. बॉक्स ऑफिस पर अद्भुत सफलता के साथ ही कलात्मक दृष्टि से भी इसकी प्रशंसा की गई. लेकिन फिल्म की आलोचना भी हुई कि यह पुरातनपंथी परम्पराओं और आस्था को दर्शाती है, जो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत है. फिर फिल्म के नायक शिवा के अलावा अन्य किरदारों का चरित्र-चित्रण कमजोर है और स्त्री-किरदारों पर तो बिलकुल ध्यान ही नहीं दिया गया.
लेकिन ऋषभ शेट्टी का मानना है कि जो कहानी वे कह रहे हैं. उसमें शिवा का किरदार और देवा की भूमिका ये ज़ाहिर करने के लिए बहुत अहम है कि जंगल और उसमें रहने वाले लोग दरअसल एक ही इको सिस्टम का हिस्सा हैं. बहुत कुशलता से निर्देशक हमारे समाज में व्याप्त अछूत प्रथा और महिलाओं के शोषण को भी दर्शाता है.
सबसे प्रभावपूर्ण है, भूता कोला के दौरान देवा का चीत्कार, जो बगैर किसी भाषा के प्रकृति की प्रसन्नता, मनुष्य के विश्वासघात पर उसकी वेदना, आक्रोश और प्रतिशोध को प्रभावपूर्ण तरीके से व्यक्त करती है. किसानों और दलितों के समान हक और गरिमा के संघर्ष की कहानी है. ‘कांतारा’ जिसमें देवा (यानी प्राकृति) अंततः किसानों का साथ देते हैं, उन्हे इस संघर्ष की शक्ति देते हैं.
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