History of Rice:भारत में खेती-किसानी का इतिहास सदियों पुराना है. आपके प्लेट में रखे चावल की कहानी भी आपको हैरान कर देगी. चावल न केवल भारतीय आहार का मुख्य आधार है, बल्कि यह देश की आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान का भी हिस्सा है. भारत में चावल की खेती के सबसे पहले प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से मिलते हैं, जो विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है. लेकिन कहा जाता है कि इससे भी पहले भारत में चावल उपजाने के प्रमाण उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर के लहुरादेवा झील से मिले हैं. यह प्रमाण लगभग लगभग 8000 से 7000 वर्ष पूर्व के हैं. इन्हें चावल के भारत के सबसे प्राचीनतम प्रमाण माना जा सकता है. इसी के आसपास कहीं दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी चावल उपजाने के सबूत मिले हैं.
भारत में चावल की खेती के सबसे ठोस प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से मिलते हैं. चावल की खेती के प्रमाण अन्य प्राचीन सभ्यताओं जैसे चीन में भी मिले हैं. यह विवाद का विषय है कि भारत अथवा चीन में कहां सबसे पहले चावल को उपजाया गया. हालांकि अधिकांश विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि चावल की सबसे पहली पैदावार चीन की यांग्त्ज़ी घाटी में ही की गई.
देश में सिंधुघाटी सभ्यता की एक साइट लोथल में चावल की खेती के सबसे पुराने सबूत मिले हैं. इन प्रमाणों की खोज 1954-55 में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) ने की थी. इस साइट की खोज का श्रेय एसआर राव को जाता है. जो एएसआई के प्रसिद्ध आर्कियोलॉजिस्ट थे. उनकी खोज में लोथल की कई जगहों में चावल के दानों के अवशेष पाए गए. इन अवशेषों की जांच में पता चला कि ये चावल के दाने लगभग 4500-3500 BC के हैं. यह खोज भारत में चावल की खेती के इतिहास को समझने में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई.
लोथल में चावल की खेती के प्रमाणों ने यह भी साबित किया कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग चावल की खेती में माहिर थे. उन्होंने चावल की खेती के लिए सिंचाई प्रणाली और फसल चक्र जैसी तकनीकों का ज्ञान था. लोथल में चावल की खेती ने भारतीय कृषि के इतिहास को समझने में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इस खोज ने यह भी साबित किया कि भारत में चावल की खेती का एक समृद्ध इतिहास है, जो लगभग 4500 वर्ष पूर्व से शुरू होता है.
सिंधु घाटी या हडप्पा सभ्यता में चावल की खेती के प्रमाण गुजरात के लोथल के अलावा रंगपुर जैसे शहरों से मिले हैं. आधुनिक गुजरात में स्थित लोथल सिंधु घाटी सभ्यता का प्रमुख बंदरगाह शहर था. साबरमती और उसकी सहायक नदी भोगवा के बीच स्थित लोथल में सिंधु घाटी सभ्यता के कई पुरातात्विक स्थल मिले हैं.
यहां से मिले पुरातात्विक अवशेषों में चावल के दाने और कृषि उपकरण शामिल हैं, जो इस बात का संकेत देते हैं कि चावल की खेती इस क्षेत्र में की जाती थी. इसके अलावा यहां से मिडिल ईस्ट यानी आज के बहरीन और अन्य जगहों पर व्यापार के प्रमाण भी मिले हैं. दोनों देशों के बीच कई तरह बहुमूल्य स्टोन्स के व्यापार की जानकारी मिली है. इसके एक नाम लापीस लाजुली या लजवर्त मणि नामक कीमती स्टोन के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं. जो यह स्पष्ट करते हैं कि दोनों जगहों के बीच आयात-निर्यात की गतिविधियां चलती थीं.
लोथल से चावल का व्यापार भी किया जाता था. पोर्ट सिटी से इस फसल को उस समय की दूसरी सभ्यताओं तक भेजा जाता था. व्यापार में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं में मुख्यतः शामिल था. गेहूं, जौ, चावल, दालें, सरसों, खरबूज़े के बीज खजूर और अलसी. इसके अलावा मनके, मोती, और सीपियां, घोड़े. मर्तबान, मिट्टी के खिलौने का भी आपस में व्यापार होता था. सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान, आधुनिक ईराक के मेसोपोटामिया, दजला-फ़रात नदियों की भूमि जैसे क्षेत्रों से भी व्यापार किया था.
चावल की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी की उपलब्धता के कारण लोथल इस फसल के लिए एक आदर्श स्थान था. सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने सिंचाई के लिए नहरों और जलाशयों का उपयोग किया, जो चावल की खेती के लिए आवश्यक था. इससे यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने कृषि के क्षेत्र में उन्नत तकनीकों का उपयोग किया था.
सिंधु घाटी सभ्यता में चावल की खेती का केवल आर्थिक महत्व ही नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण था. चावल न केवल एक प्रमुख खाद्य स्रोत था, बल्कि यह व्यापार और वाणिज्य का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा था. लोथल जैसे बंदरगाह शहरों से चावल का निर्यात अन्य क्षेत्रों में किया जाता था, जो इसकी आर्थिक महत्व को दर्शाता है.
इसके अलावा, चावल की खेती ने सिंधु घाटी सभ्यता के सामाजिक ढांचे को भी प्रभावित किया. कृषि के विकास के साथ-साथ समाज में विशेषज्ञता और श्रम विभाजन का विकास हुआ. किसानों, व्यापारियों, और शिल्पकारों के बीच एक संतुलित संबंध स्थापित हुआ, जो सभ्यता के समृद्धि का कारण बना. चावल की खेती ने न केवल सिंधु घाटी सभ्यता की आर्थिक समृद्धि में योगदान दिया, बल्कि इसने सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को भी प्रभावित किया.
लगभग 13 हजार वर्ष से 8 हजार वर्ष पूर्व चीन की यांग्त्ज़ी नदी की घाटियों में चावल की खेती आरम्भ हुई. ऐसा माना जाता है कि चावल यांग्त्ज़ी नदी घाटी से निकल कर दुनियाभर में फैला. फिलहाल दुनिया में सबसे ज़्यादा चावल चीन उगा रहा है. भारत का इस मामले में दूसरा स्थान है.
ऐसा माना जाता है कि भारतीय धान और चीनी चावल के मिश्रण से लम्बे दाने वाले भारतीय चावल का विकास हुआ. चीन से यह चावल लगभग 5000 वर्ष पूर्व तक सिन्धु घाटी सभ्यता में भी पहुंचा. भारत से यह चावल ईरान से मध्य एशियाई देशों में होता उत्तरी अफ्रीका और यूरोप पहुंचा.
चावल की दो प्रमुख किस्में हैं. इंडिका और जैपोनिका. इसमें से इंडिका लंबे दाने वाली और सुगंधित होती है वहीं, जैपोनिका छोटे और मध्यम दाने वाला चावल होता है. चावल की फिलहाल 40,000 से ज़्यादा अलग-अलग किस्में हैं. इसमें से सबसे प्रसिद्ध चावल बासमती है. जिसकी खेती में भारत का दुनिया में बोलबाला है.
यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि लोथल में मिले चावल की खेती के प्रमाण इस फसल के इतिहास को समझने में मील का पत्थर सरीखे हैं. इस खोज ने यह भी साबित किया कि हजारों साल पहले भी भारत के लोग चावल की खेती में माहिर थे. उन्हें इसकी खेती के लिए विशेष तकनीकों का जबर्दस्त तरीके से ज्ञान था. इसके अलावा जिस तरीके से इस चावल को बाहर भेजा गया. यह व्यापार वाणिज्य में भारतीय निपुणता को भी दिखाता है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय जहाज निर्माण के क्षेत्र में भी अग्रणी थे. उन्हें समुद्री दिशाओं-हवाओं का भी ज्ञान था. कुल मिलाकर जब भी कभी चावल आपकी प्लेट में आए तो इसके पीछे हमारे पूर्वजों की दक्षता को याद करना नहीं भूलिए!
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