इस साल मॉनसून में हमारे किसान कहीं भयंकर बारिश तो कहीं सूखे से जूझते रहे और अब भी जूझ रहे हैं. इस से पहले पूरे विश्व में पर्यावरण के गंभीर बदलावों को इतनी तीव्रता से महसूस नहीं किया गया था, जब वैनकूवर जैसी जगह पर सूखा पड़ा और वरमोंट में दो महीने की बारिश चंद ही दिनों में हो गयी जिससे फ्लैश फ़्लड जैसे हालात हो गए. हमारे देश में एक ही राज्य के कुछ इलाके बाढ़ के शिकार हो गए तो कुछ सूखे की चपेट में हैं.
ऐसे हालात में याद आती है 2017 में आई हिन्दी फिल्म ‘कड़वी हवा’ की. निर्देशक नीला माधब पांडा पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति न सिर्फ सचेत हैं, बल्कि जलवायु संरक्षण के लिए जनचेतना फैलाने का काम भी करते रहे हैं. माधब की पहली फिल्म ‘आइ एम कलाम’ कलात्मक और व्यावसायिक दृष्टि से सफल रही थी. इसके अलावा वे पानी की समस्या और भ्रूण हत्या जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी फिल्म बना चुके थे.
हिन्दी में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर बनी शायद यह पहली ऐसी फिल्म है, जो सीधे सीधे मौसम में आ रहे गंभीर बदलावों और इनसे पड़ने वाले भयंकर प्रभावों की बात करती है. नीला माधब पांडा खुद ओड़ीशा के रहने वाले हैं और प्रकृति के बेहद करीब रहे हैं. एक इंटरव्यू के दौरान उन्होने बताया था कि पंद्रह साल की उम्र तक उन्हें डीजल की गंध कैसी होती है-ये पता नहीं था.
एक और इंटरव्यू में उन्होने बताया कि ओड़ीशा में उन्होने चक्रवात, सूखा, बाढ़ सब देखा. “तीस साल से पश्चिमी ओड़ीशा सूखे की मार झेल रहा है और तटीय ओड़ीशा बाढ़ का प्रकोप. लेकिन मैं कहानी में और गंभीरता लाना चाहता था. इसलिए मैंने बुंदेलखंड क्षेत्र को चुना जो आठ साल से लगातार सूखे की चपेट में था.“ माधब ने इस विषय पर ना सिर्फ शोध किया बल्कि उनके अपने जीवन में हुयी कुछ घटनाओं और किरदारों से भी प्रेरणा ली. और इस तरह बुनी गयी फिल्म ‘कड़वी हवा’ की कहानी.
ऊपरी तौर पर कहानी बहुत सरल सी लगती है लेकिन फिल्म के विजुअल्स और किरदार इसे कई आयाम देते हैं. कहानी घूमती है दो पात्रों, हेदू और गुनु बाबू के इर्द गिर्द . बुंदेलखंड के भयंकर सूखे से पीड़ित गांव में अब बच्चे ये भी भूल गए हैं कि हमारे यहां चार मौसम होते हैं. उन्हें सिर्फ गर्मी और सर्दी ही याद है. इसी गांव के बूढ़े और अंधे किसान हेदू को चिंता है कि कहीं कर्ज़ में डूबा उसका बेटा आत्महत्या ना कर ले. उसके बेटे का भरा-पूरा परिवार है, जिसका लालन पालन अब मुश्किल हो चला है, क्योंकि बारिश की कमी से ज़मीन बंजर हो चुकी है. हेदू का ये संवाद हृदय विदारक है. ‘किसान के लिए आत्महत्या करना खेती करने से कहीं आसान है.‘
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बहरहाल, हेदू बैंक जाकर पता लगाता है कि उसके बेटे पर कितना कर्जा है और उसके बाद इस उधेड़बुन में है कि किस तरह वह कर्जा चुकाने में अपने बेटे की मदद करे. बेटे से उसका रिश्ता भी कुछ तनावपूर्ण है. दोनों के बीच बातचीत नहीं है. लेकिन इससे अंधे बाप की अपने बेटे के प्रति चिंता में कोई फर्क नहीं पड़ता. हेदू की मुलाक़ात होती है गुनु बाबू से, जो रिकवरी एजेंट है और ओड़ीशा निवासी है.
गुनु बाबू की अपनी चिंता है. उनका परिवार जहां रहता है वह इलाका बाढ़ ग्रस्त है और कभी भी उनका गांव बाढ़ में डूब सकता है. उन्हें ये बंजर सूखा गांव बहुत अच्छा लगता है जहां बारिश का नामोनिशान भी नहीं. गुनु की ये कोशिश है कि किसी तरह वह परिवार को अपने गांव से निकालने लायक पैसा इकट्ठा कर ले. विडम्बना ये कि एक व्यक्ति बारिश से घबराता है तो दूसरा बेचैनी से बारिश का इंतज़ार कर रहा है. दोनों प्रकृति के भयावह रूप से त्रस्त हैं.
गुनु को इस बुन्देली गांव में किसान ‘यमदूत’ बुलाते हैं, क्योंकि जब भी वह कर्जा उगाहने गांव आता है, कोई ना कोई किसान खुदकुशी कर लेता है. हेदू को एक तरकीब सूझती है. वह इस यमदूत से एक सौदा कर लेता है. जब भी गुनु कर्जे की किश्त लेने गांव आएगा. हेदू ये जानकारी उसे देगा कि किस किसान के पास पैसा है कि वो कुछ कर्ज़ा चुका सके. बदले में गुनु उसके बेटे को हाथ नहीं लगाएगा. गुनु बाबू भी इस सौदे के लिए राज़ी हो जाते हैं. बहरहाल, फिल्म का अंत विचलित कर देने वाला है, जब हेदू का बेटा लापता हो जाता है और गुनु के गांव में एक बार फिर बाढ़ का गंभीर खतरा बना हुआ है.
बगैर किसी प्रवचन के, पर्यावरण में आ रहे बदलाव को भावनात्मक स्तर पर अभिव्यक्त करना इस फिल्म की खूबसूरती है. मेलोड्रामा नहीं है, बल्कि ठेठ ग्रामीण हास्य का पुट भी है जो फिल्म को स्वाभाविक बनाता है, कहीं कोई नकलीपन नहीं. कहानी के सभी किरदार सरवाइवल के लिए जूझ रहे हैं. यह संघर्ष और भी जटिल और दुखद हो जाता है जब आपकी लड़ाई खुद प्रकृति के साथ हो.
निर्देशक नीला माधब पांडा ने अंधे और बूढ़े किसान के किरदार को अपने ही एक रिश्तेदार की तर्ज़ पर रचा. एक इंटरव्यू में उन्होने बताया, “यह बूढ़ा किसान प्रकृति के करीब है, न बिजली का इस्तेमाल करता है, न ही उसके पास मोबाइल फोन है. इस मायने में उसका कार्बन प्रिंट लगभग शून्य है. लेकिन वह प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से जूझ रहा है, जिनके लिए बतौर समाज हम शहरी लोग जिम्मेदार हैं. लेकिन यह बूढ़ा किसान फिर भी जुटा है अपने बेटे और उसके परिवार को बचाने में जबकि एक समाज के तौर पर हम लोग पर्यावरण को बचाने के प्रति बिलकुल तटस्थ हैं.”
हेदू एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे समाज बेकार समझता है, लेकिन वास्तव में वही जलवायु परिवर्तन से जूझ रहा है. मंझे हुए कलाकार संजय मिश्रा ने निभाई थी अंधे किसान हेदू की भूमिका और ओड़िया रिकवरी एजेंट के रोल में थे रणवीर शौरी. फिल्म के दृश्य प्रभावपूर्ण हैं और जलवायु परिवर्तन के भयावह परिणामों का एहसास दिला जाते हैं.प्रसिद्ध गीतकार गुलजार की कविता ‘मौसम बेघर होने लगे हैं’ उन्हीं के स्वर में नेपथ्य में गूंजती है. और इसके साथ दिखाए जाने वाले दृश्य आज के मनुष्य समाज की सच्चाई की तरह दिमाग को झकझोर जाते हैं.
‘कड़वी हवा’ का एक और गीत, ‘मैं बंजर’ अद्भुत और हृदयस्पर्शी है. इसे आवाज़ दी है मोहन कन्नन ने और लिखा है मुक्ता भट्ट ने. यह गीत पर्यावरण परिवर्तन से जूझते किसान का चीत्कार जैसा प्रतीत होता है. ये दोनों गीत फिल्म की प्राणवायु हैं और इन्हे बहुत असरदार तरीके से फिल्माया गया है.
इस फिल्म को 64वें राष्ट्रीय फिल्म समारोह में विशेष रूप से सराहना मिली और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी इसकी प्रशंसा की गई. छोटे बजट की फिल्म होने के कारण इसने बॉक्स ऑफिस पर भी ठीक-ठाक कारोबार किया. 2017 में बनी यह फिल्म जिन हालात को दिखाती है, दुनिया भर के आम लोग आज उन्हीं से जूझ रहे हैं. यह फिल्म एक चेतावनी है. अब ज़रूरी हो गया है कि व्यक्तिगत, सामाजिक और सरकारी सभी स्तरों पर प्रदूषण रोकने और अपने मौसमों को बचाने की पुरजोर कोशिश की जाए.
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