खेती-किसानी का पानी से लगभग उतना ही गहरा संबंध है, जितना मछली का पानी से. आज जब मौसम और पर्यावरण प्रदूषण की वजह से तेज़ी से बदल रहा है और खेत को सींचने के हमारे अनेक उपाय बेकार साबित हो रहे हैं, तो पानी की एहमियत पर एक बार फिर से विचार करने की ज़रूरत है. बीसवीं सदी के कुछ हिन्दी फ़िल्मकार किसानों और कृषि में आने वाली ऐसी ही तमाम चुनौतियों के प्रति संवेदनशील थे. ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम उन्हीं चंद निर्देशक, लेखकों में लिया जाता है.
अमूमन के ए अब्बास नाम से मशहूर ख्वाजा साहब को राज कपूर की सुपरहिट फिल्मों के लेखक के तौर पर जाना जाता है लेकिन के ए अब्बास ने किसानों और मजदूरों से जुड़ी समस्याओं पर कुछ महत्वपूर्ण फिल्में बनाई, जिन्हें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सराहना और पुरस्कार भी मिले.
1946 में उन्होने फिल्म बनाई ‘धरती के लाल’ जो बंगाल के अकाल की विभीषिका और उस लालच और क्रूरता की कहानी थी, जिसके चलते लाखों लोग इस अकाल की भेंट चढ़ गए. यह उनकी पहली फिल्म थी. हिंदुस्तान के आज़ाद होने के बाद नेहरू जी और अन्य दिग्गज नेताओं ने देश के लिए जो सपने देखे थे उन्हें पूरा करने के लिए विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएं शुरू की गईं. एक देश के पुनर्निर्माण का ये जज़्बा हमारी फिल्मों में भी देखने को मिला. इनमें ‘शहीद’, ‘नया दौर’ ‘बलिदान’, संघर्ष’, उपकार’ जैसी फिल्में शामिल हैं.
पूरे देश के किसानों को पानी की समस्या से ना जूझना पड़े- इस विजन के साथ बड़े-बड़े बांधों की नींव रखी गई. लेकिन राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके अब भी पानी से बहुत दूर थे. 1963 में राजस्थान में भी एक महत्वाकांक्षी जल परियोजना की शुरुआत की गई. यह उस वक्त दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ख्वाजा अहमद अब्बास से एक दिन बातों ही बातों में ज़िक्र किया कि वे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में पानी की अहमियत और नहर के बनने पर फिल्म क्यों नहीं बनाते?
ख्वाजा अहमद अब्बास को भी इस मुद्दे में बहुत से आयाम नज़र आए और इस तरह नींव रखी गई फिल्म ‘दो बूंद पानी’ की. यह फिल्म कहानी है गंगा नाम के युवा किसान और उसकी नयी नवेली और पढ़ी-लिखी दुल्हन गौरी की. गंगा के पिता हरी सिंह पानी की कमी से अपनी ज़मीन के सूखने से बहुत परेशान है. लगातार पानी की कमी झेलते इस गांव में गंगा एक न्यूज़ रील देखता है राजस्थान में एक बड़े बांध के प्रोजेक्ट के बारे में. शीरी और फरहाद की कहानी से प्रेरित होकर वह भी इस नहर के बनने में योगदान देना चाहता है और घर की माली हालत ऐसी है कि उसकी बीवी भी यही सलाह देती है.
गंगा के जाने के बाद इस परिवार पर तमाम दिक्कतें आ पड़ती हैं जिनका सामना गौरी बहादुरी से करती है. अंततः गंगा बांध के निर्माण के दौरान एक हादसे को बचाते हुए मारा जाता है. लेकिन फिल्म का अंत आशावान है. गौरी अपने नवजात बच्चे को नाम देती है ‘जमुना’.
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“पानी है तो जान है...पानी है तो जीवन है…दो बूंद पानी से इस मुर्दा ज़मीन में जान आ जाएगी!” हालांकि फिल्म का मुख्य फोकस किसान और आम आदमी के लिए पानी की अहमियत है , लेकिन यह फिल्म महिलाओं की शिक्षा, बेगार महिला श्रम और विकास की हमारी अवधारणा में निहित खामियां- जैसे गंभीर विषयों को भी अप्रत्यक्ष तौर पर उठाती है.
इस फिल्म में गंगा की भूमिका में थे जलाल आग़ा और गौरी की भूमिका निभाई सिम्मी ग्रेवाल ने. लंबू इंजीनियर के रोल के लिए के ए अब्बास अमिताभ बच्चन को लेना चाहते थे, लेकिन तब तक अमिताभ एक व्यस्त अभिनेता बन चुके थे. जबकि अमिताभ को ‘सात हिंदुस्तानी’ में पहला रोल के ए अब्बास ने ही दिया था. बहरहाल, किरण कुमार को इस रोल में लिया गया. ये किरण
कुमार की पहली फिल्म थी. अब्बास साहब एक सफल लेखक और स्क्रिप्ट रायटर थे, लेकिन फिल्म बनाने के लिए उन्हें हमेशा कर्जा लेना पड़ता. ज़ाहिर सी बात है कि ‘दो बूंद पानी’ को भी गंभीर आर्थिक संकट के बीच ही बनाया गया. फिल्म की स्क्रिप्ट अच्छी होते हुए भी यह एक डॉक्यूड्रामा जैसी लगती है. सिम्मी ग्रेवाल बहुत कोशिश के बावजूद ग्रामीण राजस्थानी युवती नहीं लगतीं. जलाल आग़ा अच्छे अभिनेता थे, किरण कुमार भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं. लेकिन फिल्म का सबसे मजबूत पहलू है इसका संगीत और गाने. संगीत दिया था जयदेव ने और गानों में लोकगीतों की छाप है. इसीलिए 1971 में रिलीज़ हुई ये फिल्म हालांकि एक हफ्ते में ही सिनेमा घरों से गायब हो गयी और सुपर स्टार राजेश खन्ना की आंधी में भुला दी गयी, लेकिन कैफी आज़मी द्वारा लिखे इसके गीत आज भी याद किए जाते हैं, खास कर – “पीतल की मोरी गागरी” और “जा री पवनिया पिया के देस जा”.
फिल्म की शुरुआत प्रभावपूर्ण है, जिसमें रेगिस्तान में पानी के लिए मीलों चलती महिलाओं, सूखे नलो के दृश्यों के बरक्स शहर के स्विमिंग पूल में खेलते बच्चों और अपने पालतू जानवरों को नहलाते लोगों के दृश्यों को रखा गया है. फिर शुरू का ही एक दृश्य बहुत सशक्त है, जब गंगा अपनी नयी पत्नी से पिता का परिचय करवाता है तो पिता को यह देखने में कोई दिलचस्पी नहीं कि बहू सुंदर है, सुशील है या नहीं. वह सहज ही सवाल पूछता है- कि क्या वह दूर से पानी भर कर गागर घर तक ला पाएगी?
फिल्म को बनाने में आई दिक्कतों का ज़िक्र करते हुये अब्बास ने अपनी आत्मकथा ‘आई एम नॉट एन आइलैंड’ में लिखा है कि हालांकि सिम्मी एक अच्छी अभिनेत्री थीं और निर्देशन और संवादों को पूरी गंभीरता से लेती थीं, लेकिन जब मेकअप की बात आती तो वो किसी की बात ना मानतीं और सेट पर एक घरेलू ग्रामीण महिला की तरह नहीं बल्कि एक राजस्थानी राजकुमारी की तरह आतीं.
फिर फिल्म को ऑन लोकेशन ही शूट किया गया था और सभी अभिनेता और पूरी टीम लोकेशन तक रेल के थर्ड क्लास डब्बे में ही बैठ कर सफर करते थे और सभी के लिए लोकेशन पर कैंप बना दिये गए थे और क्रू का हर व्यक्ति हर काम करता था. इस तरह ना सिर्फ बचत होती बल्कि पूरी टीम में एक सौहार्द की भावना भी बन गयी.
फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और राजस्थान की विशालकाय इन्दिरा नहर भी बन गयी. सिंचाई की समस्या तो एक हद तक दूर हो गयी लेकिन बड़े बड़े बांधों और इमारतों के बनने से ना तो सभी का विकास हुआ ना ही गांव से लोगों का शहरों की तरफ पलायन रुक पाया. इस संदर्भ में यह फिल्म भविष्यसूचक साबित हुई क्योंकि यह इन सरोकारों को भी सामने लाती है. आज जब हम क्लाइमेट चेंज जैसे बदलावों से जूझ रहे हैं तो ‘दो बूंद पानी’ में उठाए गए मुद्दे 52 साल बाद भी उतने ही प्रासंगिक लगते हैं. इस अर्थ में यह फ्लॉप होते हुए भी एक महत्वपूर्ण फिल्म है.
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