गेहूं पर हुई नई रिसर्च से भारत को जगी बड़ी उम्मीदयूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, डेविस के साइंटिस्ट्स ने ऐसे गेहूं के पौधे बनाए हैं जो अपना खुद का फर्टिलाइजर बना सकते हैं. यह एक ऐसा डेवलपमेंट है जिससे कम फर्टिलाइजर से ज्यादा पैदावार ली जा सकती है और खेती का खर्च भी कम हो सकता है. इसके चलते हवा और पानी का प्रदूषण भी कम हो सकता है.
यह काम एक रिसर्च ग्रुप का है जिसे प्लांट साइंसेज डिपार्टमेंट के जाने-माने डॉ. एडुआर्डो ब्लमवाल्ड डायरेक्ट कर रहे हैं. जीन-एडिटिंग टूल CRISPR का इस्तेमाल करके, टीम ने पौधे के एक नेचुरल केमिकल का प्रोडक्शन बढ़ाया. अमेरिका में हुए महत्वपूर्ण रिसर्च के बाद भारत में भी उम्मीदें जगी हैं कि बहुत जल्द इस टेक्नोलॉजी से गेहूं और धान जैसी फसल तैयार होगी जिसे बाहरी खाद की जरूरत नहीं होगी.
भारत के लिए 'जीन एडिटिंग' की यह टेक्नोलॉजी इसलिए भी बेहद उम्मीदों से भरी है क्योंकि यहां फर्टिलाइजर का इस्तेमाल अधिक होता है. इसके बेतहाशा प्रयोग से मिट्टी बंजर हो रही है जिसे रोकने के लिए अब प्राकृतिक खेती और ऑर्गेनिक खेती पर जोर दिया जा रहा है. फर्टिलाइजर के लिहाज से देखें तो केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर यह टेक्नोलॉजी कारगर साबित हो सकती है.
जीन एडिटिंग के इस पूरे डेवलपमेंट पर 'प्लांट जेनेटिक इंजीनियरिंग' के जाने-माने विशेषज्ञ प्रो. केसी बंसल (पूर्व निदेशक ICAR-NBPGR, पूसा, नई दिल्ली) ने अपनी राय दी. 'किसान तक' से बातचीत में उन्होंने बताया कि अपने देश में भी जीन एडिटिंग पर अच्छा काम चल रहा है. लेकिन डॉ. ब्लमवाल्ड के शोध से एक नई उम्मीद जगी है. भारत में भी हम ऐसा कर सकते हैं, खासकर गेहूं और चावल में जिनकी खपत सबसे अधिक है. इन फसलों में फर्टिलाइजर का खर्च भी अधिक होता है. इस लिहाज से जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर गेहूं, चावल की नई किस्में तैयार करनी चाहिए.
प्रो. बंसल ने तो तिलहन, मक्का और मिलेट्स के लिए भी इस तकनीक की वकालत की. केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इस तरह की रिसर्च की जानी चाहिए और जीन एडिटिंग से खुद की खाद बनाने वाला गेहूं, धान तैयार करना चाहिए. प्रो. बंसल ने कहा कि हमें 2030 तक उम्मीद करनी चाहिए कि हम भी गेहूं, धान की ऐसी वैरायटी बना लें जो खुद के लिए फर्टिलाइजर तैयार करे. उन्होंने सलाह देते हुए कहा कि हमें भविष्य की जरूरतों को देखते हुए जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी पर अधिक बारीकी से नजर रखनी चाहिए.
भारत में अभी हाल में जीन एडिटिंग टेक्नोलॉजी के जरिये धान की दो किस्में लॉन्च की गई हैं. ये दोनों किस्में बेहद अच्छी हैं जिनमें उत्पादन बढ़ाने और सैलेनिटी/एल्केलेनिटी टॉलरेंस की क्षमता है. इस लिहाज से कहें तो जिस तरह दलहन की फसलें खुद के लिए नाइट्रोजन फिक्सेशन से खाद बनाती हैं, वैसा काम धान और गेहूं में भी होना चाहिए.
प्रो. बंसल ने कहा कि पिछले कई दशकों से साइंटिस्ट्स रिसर्च में लगे थे कि जिस तरह से दलहन में रूट नोड्यूल्स के द्वारा नाइट्रोजन फिक्स होती है, उसी तरह से धान में भी एटमॉस्फेरिक नाइट्रोजन फिक्स हो. यहां तक कि मनीला स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में भी इस पर काम हुआ है. लेकिन डॉ. ब्लमवाल्ड के काम से पूरी दुनिया में जीन एडिटिंग के द्वारा अब एक नई उम्मीद जगी है और भारत में भी इस तरह के काम पर जोर देना चाहिए.
कई विकासशील देशों के लिए यह तरक्की भरोसेमंद फसल प्रोडक्शन के लिए नई मदद दे सकती है. जैसा कि डॉ. ब्लमवाल्ड ने कहा, "अफ्रीका में, लोग फर्टिलाइजर का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं, और खेत छोटे होते हैं, छह से आठ एकड़ से बड़े नहीं होते. "सोचिए, आप ऐसी फसलें लगा रहे हैं जो मिट्टी में बैक्टीरिया को स्टिम्युलेट करती हैं ताकि फसलों को नैचुरली जरूरी फर्टिलाइजर मिल सके. वाह! यह बहुत बड़ा फर्क है!"
आपको बता दें कि गेहूं में किया हुआ यह इनोवेशन चावल में भी सफल हो चुका है, लेकिन अभी रिसर्च को किसानों तक ले जाना बाकी है. इस टेक्निक के द्वारा दूसरी मुख्य अनाज वाली फसलों पर भी काम चल रहा है.
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