विदेशी लैबों से लौटकर महंगे हुए बीज... अब 'भारत बीज' की हुंकार देखेगा जमाना, किसानों को मिलेगा उनका हक

विदेशी लैबों से लौटकर महंगे हुए बीज... अब 'भारत बीज' की हुंकार देखेगा जमाना, किसानों को मिलेगा उनका हक

देसी बीज विदेशी लैबों और कंपनियों के हाथों में पहुंचकर महंगे हाइब्रिड के रूप में लौट रहे हैं. वहीं, ITPGRFA और CGIAR जैसे ढांचे भारत और यहां के किसानों को लाभ नहीं दे पाए. किसान अपनी ही विरासत खरीदने को मजबूर है. “भारत बीज” इस असंतुलन को चुनौती देकर बीज पर किसान का हक, स्थानीय उत्पादन और ग्रामीण समृद्धि का नया रास्ता दिखाता है. पढ़ें, बिनोद आनंद इस बारे में क्‍या कहते हैं...

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विदेशी लैबों से लौटकर महंगे हुए बीज... अब 'भारत बीज' की हुंकार देखेगा जमाना, किसानों को मिलेगा उनका हक'भारत बीज' से किसानों को मिलेगा अध‍िकार (सांकेतिक तस्‍वीर)
  • बिनोद आनंद

 

हमारे गांवों में एक पुरानी कहावत है - “बीज में ही भगवान बसता है.” क्योंकि बीज सिर्फ अनाज नहीं है; बीज उम्मीद है, जीवन है, इतिहास है. जब किसान अपने दादाजी के बोए हुए धान को हाथ में लेता है, तो उसमें पांच पीढ़ियों का पसीना सूखा होता है, पर आज यही बीज, जिसे किसान अपनी जान समझकर बचाता रहा, वही बीज उसके हाथ से फिसलकर अमेरिका-यूरोप की लैबों और कंपनियों की जेब में चला गया है. सबसे बड़ा दुख तो यह है कि किसान अपने ही धन का दाम चुकाकर बीज खरीदने को मजबूर है. उसकी विरासत ब्रांड बन गई है और उसकी मेहनत पेटेंट. यह दर्द सिर्फ खेत में नहीं, दिल में भी उग रहा है.

80 प्रतिशत बीज बाजार पर कुछ कंपन‍ियों का कब्‍जा

आज दुनिया में मौजूद 90% बायोडायवर्सिटी एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में है, पर दुनिया की 80% से ज़्यादा वैश्विक बीज बाज़ार पर अमेरिका और यूरोप की मात्र कुछ कंपनियां कब्जा किए बैठी हैं. दुनिया के 10 में से 7 बड़े बीज निगम सिर्फ विकसित देशों में हैं, जबकि बीजों की असली विविधता भारत, पेरू, फिलीपींस और इथियोपिया जैसे देशों में पाई जाती है. यह कैसी दुनिया है जहां ख़जाना हमारा है, पर तिजोरी उनकी?

ITPGRFA संधि का उद्देश्य था कि सभी देश मिलकर बीजों को सुरक्षित रखें और बराबर लाभ बांटें, पर असलियत में यह संधि एक ऐसी सुरंग बन गई जिससे देसी किस्में बाहर गईं और बदले में महंगे हाइब्रिड और पेटेंट किस्में हमारे देश वापस लौटा दी गईं.

भारत को नहीं मिला कोई खास फायदा

भारत ने इस संधि के तहत करीब 4.5 लाख से ज्यादा देसी बीज-नमूने वैश्विक पूल में डाले, पर बदले में मिलने वाला “लाभ-साझेदारी” आज तक मुश्किल से कुछ करोड़ रुपये ही रही यानी लगभग कुछ भी नहीं. दूसरी ओर, इन बीजों से बनी विदेशी किस्मों का वैश्विक व्यापार 60 बिलियन डॉलर से ऊपर पहुंच चुका है.

बीज का खेल आज सिर्फ खेत का मसला नहीं है; यह भू–राजनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक स्वाभिमान का सीधा सवाल है. CGIAR जैसी संस्थाओं के पास आज दुनिया के 7 लाख से अधिक बीज नमूने जमा हैं, जिनमें से आधे से ज्यादा “ग्लोबल साउथ” से आए हैं. 

पहले CGIAR पूरी तरह सार्वजनिक था, पर अब जब बड़े प्राइवेट फाउंडेशन, निजी इक्विटी और ग्लोबल निवेशक उसकी नीतियों पर असर डाल रहे हैं, तो कई देशों को डर है कि कहीं उनकी जैव-संपदा किसी दूर बैठे बोर्डरूम का “एसेट” न बन जाए.

जिस देश ने गेहूं-धान की नब्बे किस्में बचाईं, वही अब विदेशी हाइब्रिड खरीद रहा है. जिस किसान ने सूखा, बाढ़, पहाड़, समुद्री हवा और जंगल के हिसाब से बीज को ढाला, वही आज कंपनी-निर्मित “एक मौसम में एक बार” वाले बीज पर निर्भर हो रहा है. यह सिर्फ आर्थिक पकड़ नहीं, एक तरह की जैविक गुलामी भी है.

भारत ने फेंका नया पत्‍ता

लेकिन भारत अब इस खेल में नया पत्ता फेंक रहा है-  और वह है “भारत बीज”. यह सिर्फ एक संस्था नहीं, बल्कि एक नई सोच है. अब बीज का मालिक किसान होगा, कंपनी नहीं. उत्पादन सहकारी करेगा, वैज्ञानिक खुले शोध करेंगे और मुनाफा गांव तक जाएगा. जैसे अमूल ने दूध की ताकत किसानों को दी, वैसे ही भारत बीज, बीज के बाजार में किसानों को असली हक दिलाने का रास्ता खोल रहा है. यह वैश्विक मॉडल को चुनौती देता हुआ, एक नया देसी मॉडल खड़ा कर रहा है - “सहकार से समृद्धि” का मॉडल.

फिलीपींस की चावल की किस्में, पेरू की आलू की विरासत, और भारत की देसी धान-दाल-कपास की सैकड़ों नस्लें आज दुनिया के साइंस और बिजनेस की रीढ़ बन चुकी हैं. पर सवाल वही है- फैसला कौन करेगा? कंपनी? या किसान? दुनिया भर के जैव-समृद्ध देशों में एक ही आवाज उठ रही है: बीज का भविष्य उन्हीं लोगों के हाथ में होना चाहिए, जिन्होंने हजारों साल से इन बीजों को जिंदा रखा है. बीज की यह जंग अब सिर्फ खेत की नहीं- राष्ट्र की आत्मा की जंग है.

(लेखक भारत सरकार की ओर से बनाई गई एमएसपी कमेटी के सदस्‍य हैं)

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