बीकानेर के बज्जू से जैसलमेर हाइवे पर एक तरफ नहर है और एक तरफ रेत के ऊंचे-ऊंचे टीले. नहर की तरफ देखने पर पंजाब जैसा अहसास होता है. नहर के साथ-साथ सफेदा के पेड़ों से ढंकी हुई जमीन है और दूसरी तरफ रेगिस्तान की छवि जो अरसे से हम सब के मन में बैठी हुई है. रेत की तरफ कैर, खेजड़ी और तमाम रेगिस्तानी वनस्पति हैं. इन सब के साथ बबूल की परदेशी किस्म 'जूलीफ्लोरा' ने भी रेत के इन टीलों को अपनी जद में ले रखा है. स्थानीय लोगों का कहना है कि इससे रेत की वनस्पतियां खत्म हो रही हैं. खैर! टीलों पर एक और गेंद जैसी कोई चीज हमारा ध्यान खींचती है. जो गहरे पीले रंग की है. जहां हम रुके उस गांव का नाम है फूलासर. ग्रामीणों से पूछने पर पता चलता है कि पीले रंग की गेंदनुमा फल को 'तुंबा' कहा जाता है. स्थानीय लोग इसके महत्व को बहुत अच्छे से जानते हैं.
इन्हीं किसानों में से एक किसान पुरखा राम से किसान तक तुंबा की पूरी कहानी समझता है. पुरखा राम कहते हैं, “तुंबा को रेगिस्तानी क्षेत्र में खरपतवार माना जाता है. जो खऱीफ के सीजन में बेल के रूप में उगता है. खेतों से तो इसे किसान उखाड़ कर फेंक देते हैं,लेकिन बारिश के मौसम में रेत के धोरों (टीलों) में ये प्राकृतिक रूप से ही उग जाता है. यहीं पककर इसके बीज गिर जाते हैं और फिर अगले साल यही बीज फिर से उग आते हैं.”
पुरखाराम बताते हैं कि तुंबा का रेगिस्तान के मौसम के हिसाब से काफी महत्व है. गर्मियों में जब रेत में कहीं दूर-दूर तक पानी नहीं मिलता तब जानवर इसे खाकर अपनी प्यास बुझाते हैं. क्योंकि तुंबा के गूदे में तरबूज की तरह काफी मात्रा में पानी होता है. ऊंट भी इसके खाते हैं जिससे उनकी पानी की जरूरत पूरी होती है. ऊंटों के साथ-साथ बकरी, गाय, भेड़ और जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर सहित रेतीली क्षेत्र में पाए जाने वाले जंगली जानवर भी इसे चाव से खाते हैं. खाने के बाद इनके मल से भी तुंबा का बीज दूसरे क्षेत्रों में पहुंचता है.
जानवरों के साथ-साथ तुंबा इंसानों के भी काम की चीज है. इसे कई बीमारियों के लिए दवाई के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. पुरखाराम बताते हैं कि तुंबा को सुखाकर-पीसकर इसका चूर्ण लेने से कब्ज की कैसी भी समस्या खत्म हो जाती है. साथ ही शुगर, पीलिया, मानसिक तनाव, मूत्र रोगों में भी यह आयुर्वेदिक दवाई के रूप में काम आती है. साथ ही यह रेगिस्तान के भू-संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
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तुंबा से आयुर्वेद में कई दवाई भी बनाई जाती हैं. इससे शीलत, रेचक और गुल्म, पित्त, पेट रोग, कफ, कुष्ठ और बुखार में काम में लिया जाता है. तुम्बा के बीजों का तेल नारियल के तेल में मिलाकर लगाने से सिर के बाल काले होते हैं.
रेगिस्तानी जिलों में महिलाएं गर्मियों के दिनों में तुंबा को सुखाकर इसके गूदे का अचार, कैंडी, मुरब्बा और चूर्ण बनाती हैं. इन जिलों में अब कई स्वयं सहायता समूह तुंबा को प्रोडक्ट बनाकर बाजार में बेचने भी लगे हैं. तुंबा के गूदे का उपयोग सबसे अधिक होता है. हालांकि यह स्वाद में हल्का कड़वा होता है, लेकिन फायदेमंद भी काफी होता है.
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जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर जिलों में अब कई किसान तुंबा की खेती भी करने लगे हैं. इससे वे इस रेतीली जमीन के पौधों को खेत में उगाकर मुनाफा भी कमा रहे हैं. इसीलिए अब यह सिर्फ खरपतवार नहीं रही. जो किसान इसकी खेती करना चाहते हैं वे खरीफ सीजन में इसे उगा सकते हैं.
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