
आना...आना खुशी है... और जाना? इस सवाल के जवाब हर किसी के व्यक्तिगत अनुभव से जुड़े हो सकते हैं और किसी के लिए सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने के भी. जाने में पीड़ा का भाव होता है. अगर जाना अस्थाई है तो यह पीड़ा थोड़ी कम महसूस होती है, लेकिन आम के संबंध में मेरी पीड़ा हर साल स्थाई सी ही होती है. यह जानते हुए भी कि अगले बरस फिर से बैसाख, जेठ और अषाढ़ आएगा. फिर से आम आएंगे. उनके आने की खुशी में फिर से सड़कों के किनारे सज जाएंगी बैलगाड़ी और ठेले. ‘विकास’ की इस दौड़ में जमाने से बाहर कर दी गई बैलगाड़ियों को फिर से बाजार में खड़ा कर देने की काबिलियत आम में हो सकती है.
नाजुक आम को घाम से बचाने के लिए सुबह-सुबह ही तान दी जाएंगी किसी बैंक के इश्तेहार वाली चौड़ी-चौड़ी छतरियां. शाम को पीली, हरी पन्नी की ओट में शान से रखा कोई आम चमक रहा होगा, बैलगाड़ी के किनारे से लगी चाइनीज लाइट से. मानो जैसे हो कोई छोटी दिवाली सा त्योहार. शायद ही कोई और ऋतु फल होगा, जिसकी आमद का स्वागत छोटे सा छोटा दुकानदार भी इतनी खुशी और शान से करता हो.
मेरे लिए बारिश का आना खुशी है तो आम का जाना वह सार्वजनिक स्वीकारोक्ति कि इसका जाना मुझे दुखी कर जाता है. इसीलिए आती हुई बारिश और जाते हुए आमों के इस मौसम में कुछ महीने और रुकने की एक संधि कराई जाए. ताकि मेरी जैसी अवाम के एक हिस्से की खुशी के दिन थोड़े और बढ़ सकें.
मेरे शहर जयपुर में आम के आने की शुरूआत होती है ‘बादाम’ से. कुछ दिन बाद आ जाते हैं ‘केसर’, ‘जम्बो केसर’, ‘चौसा’, ‘हापुस’, ‘हिमायत’ और सीजन जाते-जाते आ जाते हैं ‘दशहरी’. लेकिन इस बार सीजन के जाने और दशहरी के आने से पहले आपके इस रिपोर्टर ने सबसे ज्यादा वैरायटी के आम देखे हैं. सिर्फ देखे ही नहीं हैं बल्कि खूब खाये भी हैं. इतने कि अब डॉक्टर ने इस सीजन के लिए पाबंदी लगा दी है.
अकबर इलाहबादी ने लिखा है...
असर ये तेरे अन्फ़ास –ए-मसीहाई का है ‘अकबर’
इलाहबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा
आपका ये रिपोर्टर भी आमों की तलाश में लाहौर तो नहीं गया, लेकिन अपनी राजधानी जयपुर से निकल कर 500 किलोमीटर दूर बांसवाड़ा पहुंच गया मैंगो फेस्टिवल देखने. इस आदिवासी बहुल जिले को राजस्थान का आमों बगीचा कहा जाता है. कहते हैं तो यूं ही तो नहीं कहते.
मैंने देखते-देखते इतना देखा कि खुद के देखने का रिकॉर्ड ही बना डाला. 51 वैरायटी के आम. सब बांसवाड़ा के किसानों और एआरएस (एग्रीकल्चर रिसर्च स्टेशन) की बरसों की मेहनत का नतीजा. कई वैरायटी भले ही बाहर से लाई गईं हों, लेकिन उन्हें अपनी माटी और पानी से दरख़्त बना देना और हर साल नुमाइश के लिए तैयार कर देना कोई छोटी बात तो नहीं..!
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इस देश में पीडव्ल्यूडी विभाग की बनाई सड़क को सीवर के लिए कुछ दिन बाद नगर परिषद् द्वारा खोद दिए जाने से आज़िज आ चुके लोग हमेशा कोसते हैं कि विभागों में समन्वय क्यों नहीं है? लेकिन आम के मामले में ऐसा नहीं है. दो किनारों की तरह हमेशा दूर रहने वाले विभाग भी बांसवाड़ा के इस मैंगो फेस्टिवल में एक मंच पर आ खड़े होते हैं. शहर के कुशलबाग मैदान में नगर परिषद्, पर्यटन विभाग, एआरएस, कृषि विज्ञान केन्द्र, उद्यान विभाग और पूरे जिला प्रशासन के साथ सैंकड़ों आम से आम के किसान.
ये इस फल का खुद पर भरोसा ही है कि एक-दूसरे पर सबसे अविश्वासी सरकारी अमले भी एक फेस्टिवल को सफल बना देते हैं. इसीलिए अकेले बांसवाड़ा जिले में करीब 4 हजार हेक्टेयर में हर साल आम के बगीचे पचासों तरह के आमों से लकदक रहते हैं. यह आंकड़ा बढ़ रहा है. लेकिन किसानों का कहना है कि जैसा उत्पादन हम दे रहे हैं, सरकार और उसके विभाग वैसा बाजार हमें नहीं दे पा रहे हैं.
नायाब आम लुत्फ़ हुए रंग-रंग के, कोई है ज़र्द कोई हरा कुछ हैं लाल-लाल.
जलील मानिकपूरी के इस शेर में आम के बताए रंग कुछ कम ही हैं. मेरी जानकारी में नहीं है कि आम के स्वाद के अलावा उनकी सुंदरता पर भी कुछ शेर नज़र किए भी गए हैं या नहीं? मल्लिका, आम्रपाली, अल्फांसो, बोम्बे ग्रीन, बोम्बई. सब के सब स्वाद, साइज और देखने में अलग. मल्लिका को एक बार खाओ, अगले 15 मिनट तक स्वाद गले में उतरता रहता है.
महरून रंग पर हल्की सी हरी चमक लिए ‘बजरंग’. करीब 700 ग्राम वजन वाला ‘बैंगनपल्ली’ नीचे से किसी कटार की तरह मुड़ा हुआ है. ‘डायमंड’, ‘चेरूकू रसालू’, ‘चौसा’ और ‘फजली’, ‘केसर’, ‘किशनभोग’, ‘हिमायत’, ‘हिमसागर, ‘लंगड़ा’ और किसी नवाबी खानदान से आया हुआ लगता है सुनहरा और लाल ‘लालबाग’.
‘नीलम’ को शहर की महिलाएं अचार के लिए अपने थैले में सजा कर ले जा रही हैं. पीले और हल्के लाल रंग के ‘पैरी’ आम पर दाने ऐसे उभरे हुए हैं जैसे चीनी का पराठा. ‘राजापुरी’, ‘रत्ना’, ‘सिंधु’, ‘सरदार’, ‘स्वर्ण रेखा’, तोते सी चोंच वाला ‘तोतापुरी’ और अपने नाम के मुताबिक ‘वनराज’.
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अनूप, आमड़ी, आंगनवाला, बारामासी, भदेरिया, बनेसरा, बागीदौरा, देवरी के पास वाला, धोलिया, हाड़ली, कनेरिया, कांकरवाला, कसलवाला, लाडुआ, पीपलवाला, टीमूरवा. पहली बार देखने-पढ़ने वाला तो अंदाजा ही लगा सकता है कि ये सब गांव के नाम हैं. लेकिन ये आम के नाम और किस्में भी हैं. कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही प्रत्येक गांव की अपनी किस्म और अपना गर्व. एक सी जलवायु और माटी में हर एक किस्म का स्वाद अलग है. यही बांसवाड़ा के इन गांवों की पहचान है.
कुछ और भी हैं जो नाम से विलायती मालूम पड़ते हैं. ठसक से एक पंक्ति में रखे. जैसे टॉमी एटकिंस, कैंट और वैलिनिका प्राइड. लेकिन सालों से यहीं का खाद-पानी लेकर बड़े हुए इन विलायती आमों को खाकर लोग वैसे ही इतराते होंगे जैसे ग़ालिब इतराते हुए कहते थे...
मुझसे पूछो तुम्हें खबर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है
नेशकर का अर्थ आप कमेंट में बता सकते हैं.
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