नील की खेती भारत में सबसे पहले बंगाल में शुरू की गयी थी. अंग्रेजों द्वारा इसकी खेती जबरन कारवाई जाती थी और फिर उसे विदेशी बाज़ारों में भेज दिया जाता है. खेतों के बंजर हो जाने के डर से किसान इसकी खेती करने से घबराते थे. लेकिन अंग्रेजों के डर से उन्हें मजबूरन यह करना पड़ता था. ऐसे में इस प्रतारणा से तंग आकर किसानों ने इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी. आज के समय में इसकी खेती व्यावसायिक रूप से की जाती है. रंग (Dye) के तौर पर किसान इसकी खेती कर रहे हैं.
नील की खेती बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड के कई इलाकों में की जाती है. नील की विभिन्न किस्में भी हैं जिसका इस्तेमाल कर किसान अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं. इनमें सबसे खास इंडिगोफेरा टिनक्टरिया (indigofera Tinctoria) और इंडिगो हेटेरंथा (Indigo Heterantha) हैं.
नील की फसल को देखभाल की जरूरत होती है. इस फसल को ज़्यादा वर्षा, जलभराव और ओलावृष्टि से बचा कर रखना होता है. इसके पौधे की लंबाई एक से दो मीटर तक की होती है और इसके फूलो का रंग बैंगनी और गुलाबी होता है. जलवायु के आधार पर इसकी खेती से एक से दो साल तक उत्पादन लिया जा सकता है.
नील की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है. खेती के स्थान पर उचित जल निकासी की वावस्था होनी चाहिए. जल-भराव वाली जमीन में इसकी खेती करना मुश्किल होता है. नील की खेती के लिए गर्म और नरम दोनों जलवायु उचित माना जाता है.
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खेती से पहले गहरी जुताई करनी चाहिए. जुताई के बाद खेत को कुछ समय के लिए खुला छोड़ देना चाहिए ताकि मिट्टी हल्की हो जाए और कीट भी खत्म हो जाएं. इसके बाद खेत में 8 से 10 किलोग्राम पुरानी गोबर को अच्छे से मिला दें ताकि मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को बढ़ाया जा सके. इसके बाद रोटावेटर से जुताई कर मिट्टी को अच्छी तरह से मिला लें. मिट्टी सूखने के बाद खेतों में पाटा लगाकर खेतों को समतल कर लें.
नील बुवाई ड्रिल विधि द्वारा की जाती है. सिंचित क्षेत्रों में अप्रैल में तथा असिंचित क्षेत्रों में जून-जुलाई में बुवाई का काम करना चाहिए. इससे पौधा कम समय में कटाई के लिए तैयार हो जाता है और अच्छी उपज भी मिलती है. खेत में बीज बोने से पहले खेत में एक से डेढ़ फीट की दूरी रखते हुए कतारें तैयार कर लेनी चाहिए. इन पंक्तियों में प्रत्येक बीज के बीच एक फुट की दूरी रखें.
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