करेला अपने विशेष औषधीय गुणों के कारण सब्जियों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. भारत में इसकी खेती खरीफ और जायद दोनों मौसमों में समान रूप से की जाती है, लेकिन संरक्षित परिस्थितियों में इसे पूरे साल उगाया जा सकता है. कच्चे करेले के फल का रस शुगर रोगियों के लिए भी बहुत उपयोगी है और हाइ बीपी के रोगियों के लिए बहुत फायदेमंद है. इसमें मौजूद कड़वाहट (मोमोर्डिन) खून को साफ करने का काम करता है. वर्तमान में करेले के चिप्स, पाउडर, जूस आदि जैसे उत्पाद बनाए जा रहे हैं ताकि लोगों तक इसे अधिक से अधिक पहुंचाया जा सके. लेकिन वहीं करेले की खाती करने वाले किसान करेले की फसल में लगने वाले कुछ कीटों से बेहद परेशान हैं. तो आइए जानते हैं बचाव का तरीका क्या है.
करेले की फसल में कई तरह की बीमारियों का खतरा रहता है, जिससे कुछ ही समय में फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है. जिससे न सिर्फ फसलों को नुकसान पहुंचता है बल्कि किसानों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है. ऐसे में आइए जानते हैं करेले में लगने वाली प्रमुख बीमारियों और उनकी रोकथाम के बारे में विस्तार से.
इस रोग का पहला लक्षण पत्तियों और तनों की सतह पर सफ़ेद या हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देना है. कुछ दिनों के बाद, वे धब्बे चूर्णी में बदल जाते हैं. सफ़ेद चूर्णी पौधे की पूरी सतह को ढक लेता है. समय के साथ यह रोग होता है. इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता है.
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इसकी रोकथाम के लिए खेत में रोगग्रस्त पौधों को इकट्ठा करके जला दें. फफूंदनाशक जैसे ट्राइडीमॉर्फ 1/2 मिली/लीटर या माइक्लोब्यूटानिल 1 ग्राम/10 लीटर पानी का सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.
यह रोग बरसात और गर्मी दोनों फसलों में होता है. इस रोग का प्रसार उत्तरी भारत में अधिक है. इस रोग के मुख्य लक्षण पत्तियों पर कोणीय धब्बे हैं जो शिराओं तक सीमित होते हैं. ये पत्ते की ऊपरी सतह पर पीले रंग के होते हैं और निचली सतह पर रोएंदार फफूंद उगते हैं.
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बीजों को मेटालैक्सील नामक फफूंदनाशक दवा से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए. 0.25% मैन्कोजेब को पानी में घोलकर छिड़काव करें. रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत छिड़काव करना चाहिए. संक्रमण की अधिकता होने पर साइमेक्सानिल मैन्कोजेब 1.5 ग्राम/लीटर या मेटालैक्सील + मैन्कोजेब 2.5 ग्राम/लीटर या मेटिरम 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर 7 से 10 दिन के अंतराल पर 3-4 बार छिड़काव करें. फसल को मचान पर चढ़कर उगाना चाहिए.
इस रोग से प्रभावित करेले के फलों पर फफूंद की अधिक वृद्धि होने के कारण फल सड़ने लगते हैं. जमीन पर पड़े फलों का छिलका मुलायम और गहरे हरे रंग का हो जाता है. नमी वाले वातावरण में इस सड़े हुए भाग पर फफूंद का घना कपास जैसा जाल बन जाता है. यह रोग भंडारण और परिवहन के दौरान भी फलों में फैलता है.
खेत में उचित जल निकासी की व्यवस्था करनी चाहिए. फलों को ज़मीन से छूने से बचाने का प्रयास करना चाहिए. भंडारण और परिवहन के दौरान फलों को चोट लगने से बचाएं और उन्हें हवादार और खुली जगह पर रखें.
यह रोग विशेष रूप से नई पत्तियों में धब्बेदार और सिकुड़न के रूप में दिखाई देता है. पत्तियां छोटी और हरी-पीली हो जाती हैं. संक्रमित पौधा सड़ने लगता है और उसकी वृद्धि रुक जाती है. इस बीमारी के कारण पत्तियां छोटी दिखाई देती हैं और फूल पत्तियों में तब्दील हो जाते हैं. कुछ फूल गुच्छों में बदल जाते हैं. प्रभावित पौधा बौना रह जाता है और उसमें कोई फल नहीं लगता.
इस रोग की रोकथाम के लिए कोई कारगर उपाय नहीं हैं. लेकिन विभिन्न उपायों से इसे काफी हद तक कम किया जा सकता है. रोगग्रस्त पौधों को खेत से उखाड़कर पानी देना चाहिए. इमिडाक्लोरोप्रिड का 0.3 मिली/लीटर घोल बनाकर दस दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.
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